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बाप-बेटी की कहानी- एकुलती एक

सचिन पिळगांवकरजी के सिनेमा कारकिर्दगी का ५० वा साल संपन्न होने के वर्ष में उनकी नयी फ़िल्म ’एकुलती एक’ रीलीज़ हुई है. उनकी इकलौती सुकन्या श्रिया का फ़िल्म प्रदार्पन इस फ़िल्म से हुआ. फ़िल्म रिव्ह्यु के पुर्व मै यह बताना चाहुंगा की, उनका यह प्रदार्पन तथा प्रदर्शन नवोदित होने के पश्चात भी काफ़ी काबिले तारिफ़ रहा है. सचिन-सुप्रिया के वारिसदार के तौर पर श्रिया मराठी फ़िल्म जगत में काफ़ी आगे बढ सकती है.

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’एकुलती एक’ का मतलब है- इकलौती संतान (लड़की). श्रिया का फ़िल्म में नाम स्वरा है जो बचपन में ही अपने पिता से अलग हो चुकी है और उसका पालन मां ने किया है. सचिनजी अरूण देशपांडे नामक प्रसिद्ध गायक के रूप में नज़र आते है, जो स्वरा के पिता है. फ़िल्म की पूरी कहानी इसी पिता-पुत्री के ’केमिस्ट्री’ पर आधारित है. बचपन में खोया हुआ पिता का प्यार पाने के लिए उन्हें समझने के लिये स्वरा उनके घर मुंबई आती है. दोनो के बीच लगाव-अलगाव के कई प्रसंग आते है, इन्हें सचिनजी ने परदे पर पेश किया है. फ़िल्म की कहानी तफसील में बताना यहा उचित नहीं होगा. सचिनजी ने खुद लिखी इस कहानी के कई अंग उन्होंने सही ढंग से निर्देशित किये है. उनका मराठी फ़िल्म जगत का इतने सालों का तरजुबा इस फ़िल्म में काफ़ी अच्छी तरह से नज़र आता है. लेकिन, यह फ़िल्म उनके अन्य फ़िल्मों की तरह विनोद के आधार पर नहीं बनी, यही विशेषता मानी जायेगी. मैने खुद उनकी ’आत्मविश्वास’ यह अंतिम फ़िल्म देखी थी जो पारिवारिक कहानी को लेकर बनायी गयी थी. उसके बाद ’एकुलती एक’ का नाम ले सकते है. फ़िल्म का हर एक केरेक्टर अपनी जगह बिल्कुल सही बिठाया गया है. हमेशा की तरह इसी फ़िल्म में भी अशोक सराफ़ का बड़ा रोल है. अरूण देशपांडे के सेक्रेटरी के रूप मे वे दिखाये गये है. सचिन-श्रिया के बाद मुख्य भुमिका उनकी ही रही है. उन्हें विनोदी ढंग से परदे पर देखा जा सकता है. उनके साथ साथ किशोरी शहाणे की भी भुमिका ’एकुलती एक’ में छाप दिखाती है.
सुबोध भावे, निर्मिती सावंत, विनय येडेकर तथा सुप्रिया पिळगांवकर भी इस फ़िल्म में अपना दर्शन देते है. सुप्रियाजी को स्वरा के मां के रूप में पेश किया गया है. सचिनजी एक महान कलाकार है ही लेकिन श्रिया का अभिनय प्रदर्शन देखने की मुझे बहुत इच्छा थी. मैं इससे काफ़ी खुश हूं. किसी भी दृश्य में वह कम नहीं दिखाई देती. बॉलिवूड फ़िल्म जगत में ऐसा देखा गया है की, स्टार्स के बच्चें अपने पहले कुछ फ़िल्मों में सामान्य ही अभिनय प्रदर्शन करते है. लेकिन यह मराठी लड़की अपने पहले ही फ़िल्म में बेहतरीन अदाकारी पेश कर चुकी है. भविष्य में मराठी जगत की अग्रणी अभिनेत्री बनने का सामर्थ्य इस लडकी में दिखता है. श्रिया के परफार्मेंन्स के लिये तो यह फ़िल्म देखना बनता है!
’एकुलती एक’ के संगीत के बारे में बताया जाये तो, जितेंद्र कुळकर्णी के ’नवरा माझा नवसाचा’ फ़िल्म की एक बार फिर से याद आ गयी. उसी ढंग का संगीत इस फ़िल्म में सुनाई दिया. सोनू निगम फिर से सुनने को मिलें. उसके लिये धन्यवाद देना चाहूंगा.
मराठी में एक अच्छी कहानी तथा श्रिया की अदाकारी को देखने के लिये यह फ़िल्म एक बार ज़रूर देखिये.
मेरी रेटिंग: ३.५ स्टार्स.

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एसाइड

महेश मांजरेकर निर्देशित फिल्म ’मी शिवाजीराजे भोसले बोलतोय’ यह मराठी की आजतक की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्म रही है. मराठी चित्रजगत में नयी क्रांती की शुरुआत इस फिल्म से हुई थी. इस फिल्म के यश स्वरूप मराठी मे कई फिल्में ’मराठी माणूस’ को सामने रखकर बनाई गयी. कुछ फिल्में चली और कुछ नहीं! ’जय महाराष्ट्र ढाबा बठिंडा’ यह फिल्म भी इसी ’मराठी माणूस’ के विषय को लेकर बनाई गयी है.

Imageनिर्देशक बने संगीतकार अवधूत गुप्ते की यह तीसरी मराठी फिल्म है. इस से पहले उनकी ’झेंडा’ तथा ’मोरया’ यह फ़िल्में बॉक्स आफिस पर अच्छा करिष्मा दिखा कर गयी थी. विशेषत: दोनो फ़िल्में कुछ न कुछ विवाद में रहने के बावजूद भी अच्छा कमाल दिखा गयी थी. पहले दो फ़िल्मों की तरह अवधूत गुप्ते निर्देशित ’जय महाराष्ट्र ढावा बठिंडा’ भी मराठी माटी से तालुक रखती है. इस फ़िल्म में अवधूत गुप्ते सिर्फ़ निर्देशक के रूप से सामने आये है. ऐसा कहा जाता है की, मराठी आदमी सिर्फ़ महाराष्ट्र मे ही अपना धंदा या कारोबार संभाल सकता है. महाराष्ट्र के बाहर वह कुछ भी नहीं कर सकता. इसी थीम को लेकर अवधूत ने  ’जय महाराष्ट्र ढावा बठिंडा’ की कहानी लिखी है. इस फ़िल्म में सिरियलों अभिनेता अभिजित खांडकेकर पहली बार रूपेरी परदे पर नज़र आये है. तथा अभिनेत्री प्रार्थना बेहेरे भी इसी फ़िल्म से अपना करियर शुरू कर चुकी है. मराठी में एक्शन हिरो की कमी इस फ़िल्म से फिर एक बार महसूस होती है. मराठी आदमी पंजाब के बठिंडा मे जाकर मराठी ढाबा खोलता है, इसी थीम पर यह फ़िल्म बनाने की कोशिश अवधूत ने की है. लेकिन वह एक प्रेमकहानी बन गयी है. ढाबे को बाजू में रखकर रोमँटिक फ़िल्म की ओर इस फ़िल्म की कहानी चल पडती है. फ़िल्म की शूटिंग पहली बार पंजाब में की गयी है, उसे कई बार पंजाबी टच नज़र आता है. कहानी को देखा जाये तो शायद उस पर ज़्यादा मेहनत लेने की ज़रूरत शायद अवधूत गुप्ते को थी. तभी एक अच्छी फ़िल्म वे बना सकते थे. निर्देशन उनका ठीक है, लेकिन कहानी समझने में ही दर्शक उलझते रहते है. यही इस फ़िल्म की ’कहानी’ है, ऐसा भी हम मान सकते है. अभिजित तथा प्रार्थना का यह ’डेब्यु’ ठीक ही रहा. दमदार एन्ट्री की अपेक्षा हम अभिजित खांडकेकर से कर रहे थे. लेकिन वे भी इस में सफल नहीं रहे.

अवधूत ने पहली बार अपने फ़िल्म को संगीत नहीं दिया लेकिन निलेश मोहरीर ने इस फ़िल्म के संगीत में कोई भी कमी महसूस होने नहीं दी. फ़िल्म के गीत तथा संगीत ही सबसे मज़बूत बाजू है, ऐसा मैं कह सकता हूं. हर एक गीत मौसिकी के नज़रिए से बहुत ही श्रवनीय है. गूरू ठाकूर के गीत हमेशा की तरह याद रहते है. एक बार यह फ़िल्म देखने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन शायद कथा सूत्र में उलझना पड सकता है.
मेरी रेटिंग: ३ स्टार, संगीत: ४.५ स्टार.

जय महाराष्ट्र ढाबा बठिंडा: रीव्ह्यु

 

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