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रामशेज़: मराठों का तेजस्वी इतिहास

मराठों ने अपनी रियासत खड़ी करते समय जितने भी किलें बनायें थें, उन में से ज़्यादातर किलें सह्याद्री में हैं। नाशिक ज़िलें में मराठा रियासत के बहुत ही कम किलें हैं। उन में से एक किला है, रामशेज! मराठों के इतिहास में यह किला अपराजित रहा था। जिसने महाराष्ट्र के इतिहास को तेजस्विता प्रदान की।

नाशिक से पेठ गांव की तरफ जानेवाले रास्ते पर यह १४ किलोमीटर की दूरी पर यह किला है। महानगरपालिका की सीमा खत्म होने के बाद तीन किलोमीटर पर यह किला नज़र आता है। पेठ रोड के आशेवाडी गांव में यह किला है। मराठा रियासत के ज़्यादातर किलें घने जंगल में और पेड़-पहाडियों में बनाये गये हैं। लेकिन रामशेज एक मैदानी किला है। जिस के बाजू में ना ही कोई दूसरा पहाड़ है। अन्य किलों जितना एक किला लंबा बिल्कुल ही नहीं है। फिर भी छत्रपति संभाजी महाराज की शूर सेना ने इसे ६ साल तक अपराजित रखा था। इसी कारणवश मराठों के दूसरें छत्रपति संभाजी महाराज के इतिहास को इसने तेजस्विता बहाल की है। छत्रपति शिवाजी महाराज के मृत्युपश्चात उनके पुत्र संभाजी महाराज नये छत्रपति बने और उन्होने मराठा रियासत को मज़बूत करने के लिये सभी किलों की तरफ व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना शुरू किया था। रामशेज किले पर छत्रपति संभाजी महाराज ने सूर्याजी जेधे नामक पराक्रमी सरदार को किलेदार बनाया था। सूर्याजी ख़ुद पूरी तरह के किलें को जानते थें और दिन रात किले की पहारेदारी करते थें। ऐसा कहा जाता है की, सूर्याजी कब विश्राम करते थे, यह किसी को भी नहीं पता था। औरंगज़ेब इसी भ्रम में था की, शिवाजी के पश्चात मराठों की ताकत ख़त्म हो जायेगी। इसलिए वो दख्खन की तरफ अपनी सेना लेकर निकल पड़ा। सह्याद्री के किलें हासिल करने के लिए उसे रामशेज पर कब्ज़ा करना था। औरंगज़ेब का सरदार शहाबुद्दीन खा़न के नेतृत्व में मुग़ल सेना रामशेज पर आक्रमण करने गई। उसे लगा था की कुछ ही घंटों में किला उसके हाथ लग जायेगा। लेकिन उसकी बीस हज़ार की फ़ौज़ को ६०० सैनिकों की मराठा सेना ने दो साल तक चुनौती दी। आख़िर औरंगज़ेब ने शहाबुद्दीन ख़ान को वापस बुला लिया। इसके बाद भी फ़तेह ख़ान और कासम ख़ान ने दो-दो सालों तक रामशेज़ पर आक्रमण किया, लेकिन उसे जितने की ख़्वाहिश को वे पूरा नहीं कर सके। इन छह सालों में मुग़लों ने रामशेज को हासिल करने के लिये कई तरिकें अपनाएं थे, लेकिन उन्हें हाथ हिलाकर वापस जाना पड़ा। इन लड़ाईयों का वर्णन मराठी लेखक शिवाजी सावंत ने अपने उपन्यास ’छावा’ में किया हैं।

आज रामशेज पर इन लड़ाईयों के अवशेष तो नज़र नहीं आते। लेकिन वह मराठों के तेजस्वी इतिहास का गवाह ज़रूर बन गया है।

 

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