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Monthly Archives: दिसम्बर 2012

तुकाराम (फिल्म): जगद्गुरूका सफ़र

महाराष्ट्र को संतों की भूमी कहा जाता है। संत तत्वज्ञान तथा मराठी साहित्य ने मराठी मनुष्य को सभ्यता की सीख दी है। मराठी संतपरंपरा के प्रथम कवी संत ज्ञानेश्वर को तथा आखरी कवी संत तुकाराम को माना जाता है। प्रसिद्ध मराठी काव्यपंक्ति ’ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस…’ में यही बात दर्शायी है। संत तुकाराम का जन्म पुणे के नज़दीक देहू गांव में हुआ था। महाराष्ट्र वारकरी संप्रदाय उन्हें जगद्गुरू कहता है। सभी मराठी जन उन्हें जगद्गुरू संत तुकाराम के नाम से ही पहचानती हैं।
महाराष्ट्र के वारकरी जब पंढरपूर की यात्रा पर चलते है, तो ’ज्ञानोबा माऊली तुकाराम’ का ही जयघोष करते है। यह स्थान संत तुकाराम का मराठी दिलों में है। उन के संतजीवन पर आधारीत पहली फिल्म विष्णुपंत पागनीस ने १९४० के दशक में बनायी थी। उसका नाम था- ’संत तुकाराम’। एक फिल्म मराठी ही नहीं बल्कि भारतीय फिल्मजगत एक माईलस्टोन बन के रह गयी है। क्योंकि प्रतिष्ठापूर्ण कान्स फिल्म्स फेस्टीव्हल में इसे सन्माननीय सुवर्ण कमल पदक से सन्मानित किया गया था। यह पुरस्कार पानेवाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। महाराष्ट्र में इस फ़िल्म ने सुवर्णमहोत्सव पूरा किया था। फ़िल्म का प्रभाव इतना था की, लोग फ़िल्म देखने थियेटर में अपने जूतें उतारकर जाते थें। विष्णुपंत को ही संत तुकाराम मानकर उनकी पूजा करते थे।
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आज इस के सत्तर साल बाद फिरसे संत तुकाराम के जीवन चरित्र पर आधारित फ़िल्म मराठी में बनाई गयी। इस बीच सिर्फ़ एक बार ऐसा प्रयास कन्नड में हुआ था। इस फ़िल्म का नाम था- ’भक्त तुकाराम’। सन २०१२ में चंद्रकांत कुलकर्णी निर्देशित ’तुकाराम’ फ़िल्म प्रदर्शित हुई। १९४० की फ़िल्म संत तुकाराम के संतचरित्र पर आधारित थी तथा नयी फ़िल्म उनके सामान्य मनुष्य से संत के सफ़र पर आधारित है। इसिलिये किसी भी फ़िल्म समीक्षक ने दोनों फ़िल्मों की तुलना करना उचित नहीं समझा। लोगों के मन में यही शंका थी की, परदें पर इससे पहले भी ’संत तुकाराम’ आ चुकी है, अब कुलकर्णीजी क्या नया दिखाने वाले है? फ़िल्म को देखकर ऐसा महसूस होता है की, निर्देशक जिस उद्देश्य को लेकर यह फ़िल्म बना रहे थे वह उन्होनें हासिल किया है। संत तुकाराम के जन्म से लेकर संतजीवन का सफ़र इस फ़िल्म में प्रभावशाली रूप से सादर किया है।
फ़िल्म की शुरूआत ही तुकाराम के बालजीवन से होती है। उनके माता-पिता तथा भाई सावजी, कान्हा और दोनों पत्नियों का चरित्र भी इस फ़िल्म में सारांश रूप में नज़र आता है। उन के जीवन पर किन घटनाओं का असर हुआ तथा किन व्यक्तियों का प्रभाव था, यह बातें निर्देशक ने बहुत ही अच्छी तरह से परदे पर दिखाई है। फ़िल्म पूरी तीन घंटे की होने के बावजूद कही पर भी, थम नहीं जाती। इंटरर्व्हल तक की फ़िल्म तुकाराम के व्यवहारिक जीवन पर आधारित है। इस में उन के जीवन की सभी घटनायें फ़िल्माई गयी है।
यह केवल एक मनोरंजन करनेवाली फ़िल्म नहीं बल्कि जीवन की कहानी बयां करनेवाली फ़िल्म है। तुकाराम की मुख्य भुमिका निभानेवाले जितेंद्र ज़ोशी को इससे पहले मैंने कई फ़िल्मों में देखा है। वे मराठी के जानेमाने विनोदी अभिनेता तथा एक कवी भी है। लेकिन इस फ़िल्म में संत तुकाराम के रूप में वे खूब सजे है। अन्य लोगों की तरह मुझे भी यह आशंका थी की, एक विनोदी अभिनेता तुकाराम की भुमिका क्या कर पायेंगे? लेकिन, जितेंद्र ने इस भुमिका में जान लाई है, ऐसा कहा तो ग़लत नहीं होगा। संत तुकाराम पर आधारित इस दूसरी फ़िल्म को भी ’माईलस्टोन बनाने में उन का योगदान सबसे अधिक होगा।
मराठी फ़िल्मों की गुणवत्ता दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है। ’तुकाराम’ के गीत भी फ़िल्म मे बाद याद में रहते हैं। इन में से कई तो ’संत तुकाराम’ मे भजन ही हैं। उन्हें अवधूत गुप्ते तथा अशोक पत्की ने संगीतबद्ध किया हैं। संत तुकाराम ने लिखा ’वृक्षवल्ली आम्हा सोयरी, वनचरे’ बहुत की खुबी से अनिरूद्ध जोशी ने गाया है। अन्य गीतों में ज्ञानेश्वर मेश्राम, अवधूत गुप्ते तथा हरिहरन अपना कमाल दिखाते है। फ़िल्म का अल्बम एक बार ज़रूर सुनिये। ऐसे श्रवणीय गीत आजकल मराठी फ़िल्मों की खासियत बन गयी है।
आजकल की ’ए’ ग्रेड फ़िल्मों में ’तुकाराम’ फ़िल्म को देखना अपने युवा पिढी के उसूलों के ख़िलाफ़ होगा। फिर भी अगर कोई अच्छी फ़िल्म देखना चाहते हो, तो ये फ़िल्म ज़रूर देखिये।
मेरा रेटिंग: ४.५ स्टार.