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सातवाहन: महाराष्ट्र के निर्माता

सातवाहन… यह नाम मैने पहली बार छठी या सातवी कक्षा मे पढा होगा, लेकिन सिर्फ़ पढ़ाई के लिये ही! उसके बाद मुझे इस नाम से कोई लेनादेना नहीं पडा. लेकिन, जब महाराष्ट्र के कई किलों की सफ़र की तब ऐसा एहसास हुआ की, सातवाहन के बारे में जानकारी होनी ही चाहिये. आज भी कई मराठी तथा महाराष्ट्रीय लोगों की सातवाहन साम्राज्य के बारे में मालूम नहीं है.
Satvahan empire map (Wikipedia)
मैं नाशिक में रहता हू. यहां का एक सुप्रसिद्ध पहाड़ है- पांडव लेणी. नाशिक के अधिकतम लोग, युवक यही कहते है की, यह पांडव गुंफाये महाभारत युग की है और वे पांडवों ने बनाई है! ऐसा ही उत्तर मुझे मेरे शिवनेरी किलें की गुंफायें देखने के बाद मिला था. उनकी नाम की वजह से मैने यकीन कर लिया. जब पांडव गुफाओं के यहा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का लगा हुआ बोर्ड पढा तो ज़्यादा कुछ समझ में नहीं आया! उस बोर्ड पर पांडव गुंफाओं का इतिहास लिखा हुआ है और उसमें सातवाहन का भी उल्लेख है. ऐसे उल्लेख मुझे कई जगह पढ़ने को मिले. फिर मैने ठान ली की सातवाहनों के बारे में सबकुछ जानकारी हासिल कर के ही रहूंगा. इसी वजह से मुझे महाराष्ट्र का एक छिपा इतिहास ज्ञात हुआ. रा. श्री. मोरवंचीकर की ’सातवाहन कालीन महाराष्ट्र’ नामक मराठी किताब मैने पढ़ी. इस के अलावा इंटरनेटपर सातवाहनों के बारे में कई तरह की जानकारी प्राप्त की.
इसवी सन पूर्व पहली शताब्दी के दरमियां महाराष्ट्र में शक तथा क्षत्रप तथा क्षहरात वंशीय राजाओं की हुकुमत थी. वे मूलत: मंगोलिया के है. यह वही मंगोलिया है जिसने चंगेज़ ख़ान नामक हैवान को जन्म दिया था. शक साम्राज्य बहुत ही जुल्मी साम्राज्य था. इसे खत्म करने के लिये छिमुक छातवाहन नामक ब्राम्हण राजा ने स्वराज्य की स्थापना की. यही सातवाहन साम्राज्य है. लेकिन, शकों का साम्राज्य बहुत ही विशाल था. उसे खत्म करने के लिये सातवाहनों की बीस नस्लें चली गयी. बिसवां राजा था गौतमीपुत्र सातकर्णी. उस जमाने में सातवाहन राजा अपने माता का नाम लगाते थे. इस ढंग की मातृसत्ताक पद्धती सातवाहन चलाते थे. गौतमीपुत्र गौतमी बलश्री नामक राणी के पुत्र थे. वे राजा बने तब सातवाहन साम्राज्य बहुत ही छोटा था. वे सातारा के नज़दिक कही अपना राज्य चलाते थे. गौतमीपुत्र ने लगातार बीस साल तक शकों से संघर्ष किया. अपनी लष्करी ताकद बढायी और अंतिमत: नाशिक के गोवर्धन के नज़दिक शक राजा नहपान को पराजित कर दिया. महाराष्ट्र के इतिहास में यह सबसे बड़ा युद्ध था. इस युद्ध के बाद सातवाहन का उत्कर्ष शुरू हुआ. पुणे जिलें मे स्थित जुन्नर शहर शकों की राजधानी थी और एक बडा व्यापारी केंद्र भी था. उसपर सातवाहनों ने कब्जा कर लिया. सातवाहन यह महाराष्ट्र का पहला स्वकिय साम्राज्य था. इस राज्य का सही उत्कर्ष उनके कारदिर्दगी में ही शुरू हुआ. औरंगाबाद जिलें में स्थित पैठण शहर सातवाहनों की राजधानी थी. उसे सातवाहन काल में प्रतिष्ठाण कहा करते थे. इस के अलावा कलियान (कल्याण), सोपारा (नालासोपारा), नासिक (नाशिक), भोगवर्धन (भोकरदन), तगर (तेर), करहाटक (कऱ्हाड), नेवासा यह शहर सातवाहन काल में हरेभरे हो गये. सातवाहनों ने सह्याद्री के पर्वतों में कई किलों की निर्मिती की, घाट बनाये, बौद्ध भिक्खुं के लिये गुंफाये बनाई.
उपर लिखित शहरो में उत्खनन के दौरान सातवाहनों का इतिहास सामने आया है. उन के कई राजाओं के सिक्के इस दौरान प्राप्त हुये. जुन्नर में स्थित नाणेघाट सातवाहन काल में बनाया गया था. प्राचीन घाट निर्मिती का तथा स्थापत्य अभियांत्रिकी का वह एक उत्तम नमूना माना जाता है. जुन्नर परिसर में हमें कई बौद्ध गुंफायें भी नज़र आती है. सातवाहन कालीन ऐसी गुंफायें पुणे जिले में भाजे, कार्ले, कण्हेरी, बेडसे यहां भी देखी जा सकती है. अजिंठा की गुंफायें भी सातवाहनों ने बनायी थी. महाराष्ट्र के कई किलों का अज्ञात इतिहास सातवाहन से जुड़ा हुआ है. नाणेघाट के पहारेदार माने जानेवाले जीवधन, चावंड तथा हडसर यह किलें सातवाहन काल में ही बनाये गये थे.
इस तरह महाराष्ट्र की संस्कृती पर सातवाहनों का बडा प्रभाव पडा है. लेकिन इस की जानकारी खुद मराठी लोगों को ही बहुत कम है, ऐसा मुझे समझ मे आया. अभी भी मै सातवाहनों का इतिहास खोज रहा हूं. मैने फेसबुक पर ’सातवाहनकालीन महाराष्ट्र’ नामक पेज भी बनाया है. इससे कई अभ्यासक जुडे हुए है. मुझे ऐसा लगता है की, इतिहास ही एक ऐसी चीज़ है जो हम नई समझ के सीखते है. मुझे यकीन है, की सातवाहनों का यह गौरवशाली इतिहास मै ज़रूर नये पाठकों के सामने लाने में कामयाब हुंगा.
जय महाराष्ट्र…!!!
 

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बाप-बेटी की कहानी- एकुलती एक

सचिन पिळगांवकरजी के सिनेमा कारकिर्दगी का ५० वा साल संपन्न होने के वर्ष में उनकी नयी फ़िल्म ’एकुलती एक’ रीलीज़ हुई है. उनकी इकलौती सुकन्या श्रिया का फ़िल्म प्रदार्पन इस फ़िल्म से हुआ. फ़िल्म रिव्ह्यु के पुर्व मै यह बताना चाहुंगा की, उनका यह प्रदार्पन तथा प्रदर्शन नवोदित होने के पश्चात भी काफ़ी काबिले तारिफ़ रहा है. सचिन-सुप्रिया के वारिसदार के तौर पर श्रिया मराठी फ़िल्म जगत में काफ़ी आगे बढ सकती है.

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’एकुलती एक’ का मतलब है- इकलौती संतान (लड़की). श्रिया का फ़िल्म में नाम स्वरा है जो बचपन में ही अपने पिता से अलग हो चुकी है और उसका पालन मां ने किया है. सचिनजी अरूण देशपांडे नामक प्रसिद्ध गायक के रूप में नज़र आते है, जो स्वरा के पिता है. फ़िल्म की पूरी कहानी इसी पिता-पुत्री के ’केमिस्ट्री’ पर आधारित है. बचपन में खोया हुआ पिता का प्यार पाने के लिए उन्हें समझने के लिये स्वरा उनके घर मुंबई आती है. दोनो के बीच लगाव-अलगाव के कई प्रसंग आते है, इन्हें सचिनजी ने परदे पर पेश किया है. फ़िल्म की कहानी तफसील में बताना यहा उचित नहीं होगा. सचिनजी ने खुद लिखी इस कहानी के कई अंग उन्होंने सही ढंग से निर्देशित किये है. उनका मराठी फ़िल्म जगत का इतने सालों का तरजुबा इस फ़िल्म में काफ़ी अच्छी तरह से नज़र आता है. लेकिन, यह फ़िल्म उनके अन्य फ़िल्मों की तरह विनोद के आधार पर नहीं बनी, यही विशेषता मानी जायेगी. मैने खुद उनकी ’आत्मविश्वास’ यह अंतिम फ़िल्म देखी थी जो पारिवारिक कहानी को लेकर बनायी गयी थी. उसके बाद ’एकुलती एक’ का नाम ले सकते है. फ़िल्म का हर एक केरेक्टर अपनी जगह बिल्कुल सही बिठाया गया है. हमेशा की तरह इसी फ़िल्म में भी अशोक सराफ़ का बड़ा रोल है. अरूण देशपांडे के सेक्रेटरी के रूप मे वे दिखाये गये है. सचिन-श्रिया के बाद मुख्य भुमिका उनकी ही रही है. उन्हें विनोदी ढंग से परदे पर देखा जा सकता है. उनके साथ साथ किशोरी शहाणे की भी भुमिका ’एकुलती एक’ में छाप दिखाती है.
सुबोध भावे, निर्मिती सावंत, विनय येडेकर तथा सुप्रिया पिळगांवकर भी इस फ़िल्म में अपना दर्शन देते है. सुप्रियाजी को स्वरा के मां के रूप में पेश किया गया है. सचिनजी एक महान कलाकार है ही लेकिन श्रिया का अभिनय प्रदर्शन देखने की मुझे बहुत इच्छा थी. मैं इससे काफ़ी खुश हूं. किसी भी दृश्य में वह कम नहीं दिखाई देती. बॉलिवूड फ़िल्म जगत में ऐसा देखा गया है की, स्टार्स के बच्चें अपने पहले कुछ फ़िल्मों में सामान्य ही अभिनय प्रदर्शन करते है. लेकिन यह मराठी लड़की अपने पहले ही फ़िल्म में बेहतरीन अदाकारी पेश कर चुकी है. भविष्य में मराठी जगत की अग्रणी अभिनेत्री बनने का सामर्थ्य इस लडकी में दिखता है. श्रिया के परफार्मेंन्स के लिये तो यह फ़िल्म देखना बनता है!
’एकुलती एक’ के संगीत के बारे में बताया जाये तो, जितेंद्र कुळकर्णी के ’नवरा माझा नवसाचा’ फ़िल्म की एक बार फिर से याद आ गयी. उसी ढंग का संगीत इस फ़िल्म में सुनाई दिया. सोनू निगम फिर से सुनने को मिलें. उसके लिये धन्यवाद देना चाहूंगा.
मराठी में एक अच्छी कहानी तथा श्रिया की अदाकारी को देखने के लिये यह फ़िल्म एक बार ज़रूर देखिये.
मेरी रेटिंग: ३.५ स्टार्स.

 

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कंप्युटर मेमरी के परिमाण

किसी भी बात को नापने के लिये मात्रकों की अर्थात युनिट्स की ज़रूरत लगती है. कंप्युटर की मेमरी नापने के लिये भी किन्ही मात्रकों की तथा परिमाणों की ज़रूरत हैं. इन में से हम बहुत कम मात्रक जानते है. जैसे की मेगाबाईट, किलोबाईट तथा टेराबाईट आदि. असल में आजतक कंप्युटर की मेमरी इस से ज़्यादा नहीं बढ़ सकी है. किसी कंप्युटर इंजिनियर को भी इस के आगे वाले मात्रकों के बारे में जानकरी नहीं होगी! लेकिन कंप्युटर मेमरी की आज की रफ़्तार देखकर ऐसा लगता है की, आनेवाले कई सालों में हमे नये मात्रकों की जरूरत लग सकती हैं. रजनिकांत के ’इंदिरन’ अर्थात ’रोबोट’ नामक फ़िल्म में उसने अपना खुदका configuration बताने के लिये इसी मेमरी के किसी मात्रक का इस्तेमाल किया था. वह नीचे दियी गयी सूची में कौन सा है, इस का पता आप लगाईयेगा…!!!
 
१ बिट (० अथवा १) = बायनरी डिजिट

८ बिट्स = १ बाईट

१०२४ बाईट्स = १ केबी (किलोबाईट्स)

१०२४ केबी = १ एमबी (मेगाबाईट्स)

१०२४ एमबी = १ जीबी (गीगाबाईट्स)

१०२४ जीबी = १ टीबी (टेराबाईट्स)

१०२४ टीबी = १ पीबी (पेटाबाईट्स)

१०२४ पीबी = १ ईबी (एक्साबाईट्स)

१०२४ ईबी = १ झेडबी (झेटाबाईट्स)

१०२४ झेडबी = १ वायबी (योटाबाईट्स)

१०२४ वायबी = १ बीबी (ब्रॉंटोबाईट्स)

१०२४ बीबी = १ जीऑपबाईट्स

जीऑपबाईट्स यह कंप्युटर मेमरी नापने का सबसे बड़ा मात्रक है!
 

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एसाइड

महेश मांजरेकर निर्देशित फिल्म ’मी शिवाजीराजे भोसले बोलतोय’ यह मराठी की आजतक की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर फिल्म रही है. मराठी चित्रजगत में नयी क्रांती की शुरुआत इस फिल्म से हुई थी. इस फिल्म के यश स्वरूप मराठी मे कई फिल्में ’मराठी माणूस’ को सामने रखकर बनाई गयी. कुछ फिल्में चली और कुछ नहीं! ’जय महाराष्ट्र ढाबा बठिंडा’ यह फिल्म भी इसी ’मराठी माणूस’ के विषय को लेकर बनाई गयी है.

Imageनिर्देशक बने संगीतकार अवधूत गुप्ते की यह तीसरी मराठी फिल्म है. इस से पहले उनकी ’झेंडा’ तथा ’मोरया’ यह फ़िल्में बॉक्स आफिस पर अच्छा करिष्मा दिखा कर गयी थी. विशेषत: दोनो फ़िल्में कुछ न कुछ विवाद में रहने के बावजूद भी अच्छा कमाल दिखा गयी थी. पहले दो फ़िल्मों की तरह अवधूत गुप्ते निर्देशित ’जय महाराष्ट्र ढावा बठिंडा’ भी मराठी माटी से तालुक रखती है. इस फ़िल्म में अवधूत गुप्ते सिर्फ़ निर्देशक के रूप से सामने आये है. ऐसा कहा जाता है की, मराठी आदमी सिर्फ़ महाराष्ट्र मे ही अपना धंदा या कारोबार संभाल सकता है. महाराष्ट्र के बाहर वह कुछ भी नहीं कर सकता. इसी थीम को लेकर अवधूत ने  ’जय महाराष्ट्र ढावा बठिंडा’ की कहानी लिखी है. इस फ़िल्म में सिरियलों अभिनेता अभिजित खांडकेकर पहली बार रूपेरी परदे पर नज़र आये है. तथा अभिनेत्री प्रार्थना बेहेरे भी इसी फ़िल्म से अपना करियर शुरू कर चुकी है. मराठी में एक्शन हिरो की कमी इस फ़िल्म से फिर एक बार महसूस होती है. मराठी आदमी पंजाब के बठिंडा मे जाकर मराठी ढाबा खोलता है, इसी थीम पर यह फ़िल्म बनाने की कोशिश अवधूत ने की है. लेकिन वह एक प्रेमकहानी बन गयी है. ढाबे को बाजू में रखकर रोमँटिक फ़िल्म की ओर इस फ़िल्म की कहानी चल पडती है. फ़िल्म की शूटिंग पहली बार पंजाब में की गयी है, उसे कई बार पंजाबी टच नज़र आता है. कहानी को देखा जाये तो शायद उस पर ज़्यादा मेहनत लेने की ज़रूरत शायद अवधूत गुप्ते को थी. तभी एक अच्छी फ़िल्म वे बना सकते थे. निर्देशन उनका ठीक है, लेकिन कहानी समझने में ही दर्शक उलझते रहते है. यही इस फ़िल्म की ’कहानी’ है, ऐसा भी हम मान सकते है. अभिजित तथा प्रार्थना का यह ’डेब्यु’ ठीक ही रहा. दमदार एन्ट्री की अपेक्षा हम अभिजित खांडकेकर से कर रहे थे. लेकिन वे भी इस में सफल नहीं रहे.

अवधूत ने पहली बार अपने फ़िल्म को संगीत नहीं दिया लेकिन निलेश मोहरीर ने इस फ़िल्म के संगीत में कोई भी कमी महसूस होने नहीं दी. फ़िल्म के गीत तथा संगीत ही सबसे मज़बूत बाजू है, ऐसा मैं कह सकता हूं. हर एक गीत मौसिकी के नज़रिए से बहुत ही श्रवनीय है. गूरू ठाकूर के गीत हमेशा की तरह याद रहते है. एक बार यह फ़िल्म देखने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन शायद कथा सूत्र में उलझना पड सकता है.
मेरी रेटिंग: ३ स्टार, संगीत: ४.५ स्टार.

जय महाराष्ट्र ढाबा बठिंडा: रीव्ह्यु

 

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किलों का राजा: राजगड

Imageछत्रपति शिवाजी महाराज की राजधानी रहा किला राजगड के बारे में मुझे हमेशा उत्सुकता रही थी की यह किला कैसा होगा? तारिख़ के पन्नों में राजगड का वर्णन मैने सिर्फ़ पढा था. मगर देखने का सौभाग्य सन २०१२ में हासिल हुआ. दैनिक दिव्य मराठी को मैं इसलिये धन्यवाद देना चाहूंगा की उनकी वजह से मेरा यह सपना हुआ पूरा हुआ! दिव्य मराठी में मेरी लेख शृंखला किलों के विषय में शुरू होने वाली थी. इस के लिये उन्हों ने पहले ही रायगड़ तथा राजगड के विषय पर ही लेखों की मांग की. लेकिन मेरे पास दोनो लेख तैयार नहीं थें. इसलिये मैं और मेरा भाई दोनों पिछले साल दिसंबर में राजगड किलें की सैर करने निकल पड़े.

 

मैने यह तो सुना था की तोरणा किला तथा राजगड दोनों एक दूसरे के बहुत ही नज़दीक है. पिछले साल ही हमने तोरणा किले की भी सैर की थी मगर बारिश के मौसम में धुंद होने की वजह से तोरणा ही ठिक से देख नहीं पाए, राजगड तो दूर की बात थी. इस बार वातावरण साफ़ था. किले का वर्णन हमने इतिहास के किताबों में तो पढ़ा था तथा इंटरनेट से भी कुछ जानकारी हासिल की थी. किला एक दिन में देखना बहुत ही मुश्किल था. इसलिये सुबह साढेछह बजे ही पुणे से राजगड की ओर चल पडे. ठंड का मौसम होने की वजह से हवा में बहुत सर्द भरी हुई थी. पुणे के नज़दीक ही सिंहगड पहुंचते पहुंचते एक घंटा चला गया. तब तक सूरज काफ़ी उपर आ पहुंचा था. रविवार होने की वजह हे हमेशा की तरह सिंहगड पर युवतीयों की काफ़ी भीड़ थी. वे रविवार को यहां क्या करने आती है, इसका इल्म अब सारे पुणे को हो चुका है! सिंहगड से दाई तरफ़ जानेवाले रास्तें पर राजगड करीब तीस किलोमीटर की दूरी पर है. लेकिन यह रास्ता पहाडों के बीच से गुजरता है तथा कई घाट इस रास्ते में है. इसी कारणवश यहां से राजगड पहुंचने के लिये एक घंटा तो लगता ही है. जिस पहाड़ को पार करते वक्त सिंहगड. दृष्टी से दूर जाता है, वही राजगड तथा तोरणा किला नज़र आता है! राजगड और तोरणा की यह जोडी दूर से अद्भूत नज़र आती है. वैसे तोरणा किला वेल्हे, जो तहसील का स्थान है उस के करीब ही है. लेकिन राजगड के नज़दीक कोई बड़ा गांव नहीं है. अगर किसी सरकारी बस से आना हो तो कई दूर तक पैदल चलना पड़ता है. वेल्हे तहसील में इसी रास्ते पर ’पाबे’ नामक गांव से दो रास्ते निकलते हैं. बांया राजगड की ओर और दांया रास्ता तोरणा की तरफ़ जाता है. इस जगह से करीब दस बारह किलोमीटर की दूरी पर राजगड किला है. रास्ते पर चलते चलते राजगड का अनोखा दर्शन हम ले सकते है. इस रास्ते पर आखरी गांव है, भोंसलेवाडी. इस रास्ते से राजगड का तल दोनतीन कि.मी. की दूरी पर है. चलते चलते राजगड की अद्भूत उंचाई नापते नापते ही हम चलते है. मराठों का गौरवशाली इतिहास आंखों के सामने ख़ड़ा होता है. छत्रपति शिवाजी महाराज की राजधानी कैसी होनी चाहिये, इस का उत्तर हमें और खोजने की कतई जरूरत नहीं होती.

 

किले के तल से शिखर तक का सफ़र पार करने के लिये करीब डेढ़ घंटे का समय तो लग ही जाता है. इस रास्ते पर आधा सफ़र पार करने पर पत्थरों की सीढीयां नज़र आती है. एक एक पैड़ी एक आदमी जितनी लंबी है. यह पत्थर इतने उपर कैसे लाए गए होंगे, इस का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते. किले के शिखर पर पहुंचने से पहले मुख्य दरवाज़ा दिखाई देता है. आज भी यह दरवाज़ा काफ़ी मज़बूत स्थिती मे है. राजगड किले के चार प्रमुख भाग हैमुख्य किला (जिसे बालेकिला कहते है), संजीवनी माची, सुवेळा माची तथा पद्मावती माची. राजगड का सबसे उंचा भाग बालेकिला ही है. पुराने जमाने में यही मुख्य किला था. उसे मुंरूंबदेव का पहाड़ कहा करते थे. लेकिन शिवाजी महाराज ने इस पर्वत पर विजय हासिल करने के पश्चात सुवेळा, संजीवनी तथा पद्मावती माची का निर्माण किया और यह किला बहुत बड़ा दिखने लगा. किले की दाई ओर संजीवनी माची है. यह भाग करीब दोढाई किलोमीटर का है. आज भी वह सुस्थिती मे दिखाई देता है. यहा से भाटघर बांध तथा तोरणा किला साफ़ दिखाई देता है. तोरणा की तरफ़ जानेवाला रास्ता यही से निकलता है. बालेकिला के पिछली बाजू में सुवेळा माची है. इस माची पर हम कई स्थल देख सकते है. हस्तीप्रस्तर तथा यहा से आने के लिए और एक कठिन दरवाज़ा इसी माची पर है. यह दो किलोमीटर की माची है. माची के अंतिम शिखर से पुरंदर तथा वज्रगड दिखाई देते है. सुवेळा माची से पद्मावती माची की ओर जाने के लिए बालेकिला के दाई तरफ़ से जाना पड़ता है. इसी रास्ते पर नीचे की तरफ़ जाने के लिए एक और द्वार है जिसे ’गुंजवणे दरवाजा’ कहते है. यह गुंजवणे गांव से उपर आता है.

 

छोटी होने के बावजूद पद्मावती माची पर देखने लायक कई जगह है. सदर, पद्मावती मंदिर, पेयजल के ठिकान, चोर दरवाज़ा, पद्मावती तलाव इस माची पर स्थित है. यही सामने की तरफ़ सिंहगड किला दिखाई देता है. यहा से बालेकिला की ओर जाने के लिए पिछे जाना पड़ता है. रास्ते पर बड़ा ध्वजस्तंभ लगाया हुआ है. बालेकिला की ओर जानेवाला रास्ता झाडियों से निकलता है. यह रास्ता राजगड का सबसे कठिन रास्ता होगा. आज यहा पर दोनो तरफ़ रेलिंग लगाई हुई है, इसलिए यहा की चढा़ई सुलभ हो चुकी है. कभी कभी कल्पना करता हूं की, शिवकाल में यहा से लोग कैसे आते जाते रहे होंगे? यह रास्ता पार करने पश्चात हम बालेकिला के मुख्य दरवाज़े पर पहुंचते है. यही से सामने सुवेळा माची नज़र आती है. बालेकिला का परिसर इतना विस्तीर्ण तो नही है. यहा कई जगह महलों के अवशेष नज़र आते है. दाई तरफ़ ब्रम्हर्षी ऋषी का एक छोटा मंदिर भी दिखाई देता है. बालेकिला इस जगह का सबसे उंचा स्थान होने की वजह से यहां से पूरा मावळ इलाका एक ही दृष्टी में सहज समा जाता है. आजुबाजु के सभी किलें यहां से नज़र आते है. शिवचरित्र का पुनर्संशोधन करने का मन करता है. यही से मराठा साम्राज्य की यह पहली राजधानी कितनी मनमोहक रही होंगी, इसका अंदाज़ा आ सकता है.

 

शिवाजी महाराज का सबसे अधिक वास्तव इसी किले पर था. इसलिए शिवप्रेमीओं के लिए यह किला एक तीर्थक्षेत्र की तरह है. अगर शिवाजी महाराज को जानना है तो इस किलें को एक बार ज़रूर भेंट देना मत भूलिए

 

जय शिवाजी, जय भवानी…!!

 

किलों का राजा: राजगड

 

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तुकाराम (फिल्म): जगद्गुरूका सफ़र

महाराष्ट्र को संतों की भूमी कहा जाता है। संत तत्वज्ञान तथा मराठी साहित्य ने मराठी मनुष्य को सभ्यता की सीख दी है। मराठी संतपरंपरा के प्रथम कवी संत ज्ञानेश्वर को तथा आखरी कवी संत तुकाराम को माना जाता है। प्रसिद्ध मराठी काव्यपंक्ति ’ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस…’ में यही बात दर्शायी है। संत तुकाराम का जन्म पुणे के नज़दीक देहू गांव में हुआ था। महाराष्ट्र वारकरी संप्रदाय उन्हें जगद्गुरू कहता है। सभी मराठी जन उन्हें जगद्गुरू संत तुकाराम के नाम से ही पहचानती हैं।
महाराष्ट्र के वारकरी जब पंढरपूर की यात्रा पर चलते है, तो ’ज्ञानोबा माऊली तुकाराम’ का ही जयघोष करते है। यह स्थान संत तुकाराम का मराठी दिलों में है। उन के संतजीवन पर आधारीत पहली फिल्म विष्णुपंत पागनीस ने १९४० के दशक में बनायी थी। उसका नाम था- ’संत तुकाराम’। एक फिल्म मराठी ही नहीं बल्कि भारतीय फिल्मजगत एक माईलस्टोन बन के रह गयी है। क्योंकि प्रतिष्ठापूर्ण कान्स फिल्म्स फेस्टीव्हल में इसे सन्माननीय सुवर्ण कमल पदक से सन्मानित किया गया था। यह पुरस्कार पानेवाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। महाराष्ट्र में इस फ़िल्म ने सुवर्णमहोत्सव पूरा किया था। फ़िल्म का प्रभाव इतना था की, लोग फ़िल्म देखने थियेटर में अपने जूतें उतारकर जाते थें। विष्णुपंत को ही संत तुकाराम मानकर उनकी पूजा करते थे।
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आज इस के सत्तर साल बाद फिरसे संत तुकाराम के जीवन चरित्र पर आधारित फ़िल्म मराठी में बनाई गयी। इस बीच सिर्फ़ एक बार ऐसा प्रयास कन्नड में हुआ था। इस फ़िल्म का नाम था- ’भक्त तुकाराम’। सन २०१२ में चंद्रकांत कुलकर्णी निर्देशित ’तुकाराम’ फ़िल्म प्रदर्शित हुई। १९४० की फ़िल्म संत तुकाराम के संतचरित्र पर आधारित थी तथा नयी फ़िल्म उनके सामान्य मनुष्य से संत के सफ़र पर आधारित है। इसिलिये किसी भी फ़िल्म समीक्षक ने दोनों फ़िल्मों की तुलना करना उचित नहीं समझा। लोगों के मन में यही शंका थी की, परदें पर इससे पहले भी ’संत तुकाराम’ आ चुकी है, अब कुलकर्णीजी क्या नया दिखाने वाले है? फ़िल्म को देखकर ऐसा महसूस होता है की, निर्देशक जिस उद्देश्य को लेकर यह फ़िल्म बना रहे थे वह उन्होनें हासिल किया है। संत तुकाराम के जन्म से लेकर संतजीवन का सफ़र इस फ़िल्म में प्रभावशाली रूप से सादर किया है।
फ़िल्म की शुरूआत ही तुकाराम के बालजीवन से होती है। उनके माता-पिता तथा भाई सावजी, कान्हा और दोनों पत्नियों का चरित्र भी इस फ़िल्म में सारांश रूप में नज़र आता है। उन के जीवन पर किन घटनाओं का असर हुआ तथा किन व्यक्तियों का प्रभाव था, यह बातें निर्देशक ने बहुत ही अच्छी तरह से परदे पर दिखाई है। फ़िल्म पूरी तीन घंटे की होने के बावजूद कही पर भी, थम नहीं जाती। इंटरर्व्हल तक की फ़िल्म तुकाराम के व्यवहारिक जीवन पर आधारित है। इस में उन के जीवन की सभी घटनायें फ़िल्माई गयी है।
यह केवल एक मनोरंजन करनेवाली फ़िल्म नहीं बल्कि जीवन की कहानी बयां करनेवाली फ़िल्म है। तुकाराम की मुख्य भुमिका निभानेवाले जितेंद्र ज़ोशी को इससे पहले मैंने कई फ़िल्मों में देखा है। वे मराठी के जानेमाने विनोदी अभिनेता तथा एक कवी भी है। लेकिन इस फ़िल्म में संत तुकाराम के रूप में वे खूब सजे है। अन्य लोगों की तरह मुझे भी यह आशंका थी की, एक विनोदी अभिनेता तुकाराम की भुमिका क्या कर पायेंगे? लेकिन, जितेंद्र ने इस भुमिका में जान लाई है, ऐसा कहा तो ग़लत नहीं होगा। संत तुकाराम पर आधारित इस दूसरी फ़िल्म को भी ’माईलस्टोन बनाने में उन का योगदान सबसे अधिक होगा।
मराठी फ़िल्मों की गुणवत्ता दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है। ’तुकाराम’ के गीत भी फ़िल्म मे बाद याद में रहते हैं। इन में से कई तो ’संत तुकाराम’ मे भजन ही हैं। उन्हें अवधूत गुप्ते तथा अशोक पत्की ने संगीतबद्ध किया हैं। संत तुकाराम ने लिखा ’वृक्षवल्ली आम्हा सोयरी, वनचरे’ बहुत की खुबी से अनिरूद्ध जोशी ने गाया है। अन्य गीतों में ज्ञानेश्वर मेश्राम, अवधूत गुप्ते तथा हरिहरन अपना कमाल दिखाते है। फ़िल्म का अल्बम एक बार ज़रूर सुनिये। ऐसे श्रवणीय गीत आजकल मराठी फ़िल्मों की खासियत बन गयी है।
आजकल की ’ए’ ग्रेड फ़िल्मों में ’तुकाराम’ फ़िल्म को देखना अपने युवा पिढी के उसूलों के ख़िलाफ़ होगा। फिर भी अगर कोई अच्छी फ़िल्म देखना चाहते हो, तो ये फ़िल्म ज़रूर देखिये।
मेरा रेटिंग: ४.५ स्टार.

 

अंग्रेज़ी विद्यालयों में हिंदी

महाराष्ट्र में ही बल्कि पूरे देश में पिछले पांच सालों में अंग्रेज़ी माध्यमों के विद्यालय (पाठशाला) की तादाद बड़े पैमाने पर बढ़ गई है। आजकल गली-गली में अंग्रेज़ी स्कूल नज़र आते हैं। महाराष्ट्र के ग्रामीण भागों में “सीबीएसई” के ’इंटरनैशनल स्कूल’ खुले हैं। ग्रामीण जनता भी अपने बच्चे को अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाने में बड़ी ही उत्सुक है। जिस गती से अंग्रेज़ी स्कूल बढ़ रहे है, उस गती से क्या अध्यापकों की संख्या बढ़ रही है? इसका विचार भी होना ज़रूरी है।

अंग्रेज़ी माध्यम से ’शिक्षक’ की डिग्री पानेवालों की तादाद अपने राज्य में बहुत ही कम है, इसलिये सभी अंग्रेज़ी स्कूलों को अच्छे अध्यापक नहीं मिल रहे। इस के परिणाम अब हमारे सामने उभरकर आ रहे हैं। आज अंग्रेज़ी स्कूलों के कई अध्यापक हिंदी में सिखातें है। तथा छात्रों से अंग्रेजी से कभी भी वार्तालाभ नहीं करते। इसी कारणवश आज ऐसे स्कूलों से पास हुए बच्चे अंग्रेज़ी नहीं बोल पा रहे हैं। मैने ख़ुद देखा है की, अंग्रेज़ी माध्यम से अपनी तालीम पूरा करनेवाले बच्चे अंग्रेज़ी के बजाए हिंदी के बात करना पसंद करते है, क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी की अच्छी तालीम ही नहीं हासिल हुई। उनके अध्यापक उनसे पूरी तरह हिंदी में चर्चा करते है। और छात्रों को अंग्रेज़ी भी बोलनी नहीं आती। जब अध्यापक को ही अंग्रेज़ी नहीं आती तो वे छात्रों को क्या सीख देंगे? मैंने और एक बात भी गौर की है की, दो मराठी भाषिक तथा दो गुजराती भाषिक भी एक दूसरे से हिंदी में बात करते है, जब की उन की पढ़ाई अंग्रेज़ी में हुई है और मातृभाषा अलग है।

शिक्षा का माध्यम किस लिए चुना जाता है? इस का जवान छात्र के माता-पिता को मालूम होना चाहिए। अगर मालूम है; तो ये भी जान लेना चाहिये की, अपना बेटा/बेटी अंग्रेज़ी से ही पढ़ रहे हैं। शिक्षणविज्ञान कहता है की, अपनी मातृभाषासे पढ़ो, वही आपकी सबसे अच्छी तालीम होगी। यहां अंग्रेज़ी माध्यम से न ही अंग्रेज़ी का ज्ञान आ रहा है और न ही मातृभाषा का! ऐसी पढ़ाई का क्या फ़ायदा? हमें सिर्फ़ रट्टू पोपट तैयार नहीं करने। इस देश के भविष्य को बदलने की ताकत रखनेवाली युवा पिढी तैयार करनी है।

 

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रामशेज़: मराठों का तेजस्वी इतिहास

मराठों ने अपनी रियासत खड़ी करते समय जितने भी किलें बनायें थें, उन में से ज़्यादातर किलें सह्याद्री में हैं। नाशिक ज़िलें में मराठा रियासत के बहुत ही कम किलें हैं। उन में से एक किला है, रामशेज! मराठों के इतिहास में यह किला अपराजित रहा था। जिसने महाराष्ट्र के इतिहास को तेजस्विता प्रदान की।

नाशिक से पेठ गांव की तरफ जानेवाले रास्ते पर यह १४ किलोमीटर की दूरी पर यह किला है। महानगरपालिका की सीमा खत्म होने के बाद तीन किलोमीटर पर यह किला नज़र आता है। पेठ रोड के आशेवाडी गांव में यह किला है। मराठा रियासत के ज़्यादातर किलें घने जंगल में और पेड़-पहाडियों में बनाये गये हैं। लेकिन रामशेज एक मैदानी किला है। जिस के बाजू में ना ही कोई दूसरा पहाड़ है। अन्य किलों जितना एक किला लंबा बिल्कुल ही नहीं है। फिर भी छत्रपति संभाजी महाराज की शूर सेना ने इसे ६ साल तक अपराजित रखा था। इसी कारणवश मराठों के दूसरें छत्रपति संभाजी महाराज के इतिहास को इसने तेजस्विता बहाल की है। छत्रपति शिवाजी महाराज के मृत्युपश्चात उनके पुत्र संभाजी महाराज नये छत्रपति बने और उन्होने मराठा रियासत को मज़बूत करने के लिये सभी किलों की तरफ व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना शुरू किया था। रामशेज किले पर छत्रपति संभाजी महाराज ने सूर्याजी जेधे नामक पराक्रमी सरदार को किलेदार बनाया था। सूर्याजी ख़ुद पूरी तरह के किलें को जानते थें और दिन रात किले की पहारेदारी करते थें। ऐसा कहा जाता है की, सूर्याजी कब विश्राम करते थे, यह किसी को भी नहीं पता था। औरंगज़ेब इसी भ्रम में था की, शिवाजी के पश्चात मराठों की ताकत ख़त्म हो जायेगी। इसलिए वो दख्खन की तरफ अपनी सेना लेकर निकल पड़ा। सह्याद्री के किलें हासिल करने के लिए उसे रामशेज पर कब्ज़ा करना था। औरंगज़ेब का सरदार शहाबुद्दीन खा़न के नेतृत्व में मुग़ल सेना रामशेज पर आक्रमण करने गई। उसे लगा था की कुछ ही घंटों में किला उसके हाथ लग जायेगा। लेकिन उसकी बीस हज़ार की फ़ौज़ को ६०० सैनिकों की मराठा सेना ने दो साल तक चुनौती दी। आख़िर औरंगज़ेब ने शहाबुद्दीन ख़ान को वापस बुला लिया। इसके बाद भी फ़तेह ख़ान और कासम ख़ान ने दो-दो सालों तक रामशेज़ पर आक्रमण किया, लेकिन उसे जितने की ख़्वाहिश को वे पूरा नहीं कर सके। इन छह सालों में मुग़लों ने रामशेज को हासिल करने के लिये कई तरिकें अपनाएं थे, लेकिन उन्हें हाथ हिलाकर वापस जाना पड़ा। इन लड़ाईयों का वर्णन मराठी लेखक शिवाजी सावंत ने अपने उपन्यास ’छावा’ में किया हैं।

आज रामशेज पर इन लड़ाईयों के अवशेष तो नज़र नहीं आते। लेकिन वह मराठों के तेजस्वी इतिहास का गवाह ज़रूर बन गया है।

 

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फिर से मराठी झंडा

इससे पहले वाले ब्लॉग में मैने ’शाळा’ फिल्म के बारे में लिखा था। उसी फिल्म को आज सर्वोत्कृष्ट मराठी फिल्म के राष्ट्रीय खिताब से नवाज़ा गया है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में इस बार मराठी फिल्मों ने फिर अपना झंडा फिरसे लहरा दिया। बॉलिवूड की फिल्में कितनी भी रंगरंगीन हो, वे दर्ज़ेदार फिल्मों की पंक्ति में नहीं बैठ सकती, यही इन फिल्म पुरस्कारों ने साबित किया है। बॉलिवूड को सिर्फ़ विद्या बालन के रूप में सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार मिल गया। यही उन के लिए खुशी की बात होगी…!!!

बालगंधर्व, देऊळ तथा शाळा ये पिछले साल की बेहतरीन मराठी फिल्में रही हैं। मराठी भाषिक इन फिल्मों को नहीं देखते, इन्ही कारणवश मराठी फ़िल्मे महाराष्ट्र में ही बहुत कम चल पाती हैं। लेकिन मराठी दर्शक देखे या ना देखे, फिल्म पुरस्कार इन फ़िल्मों को अपना दर्जा प्रदान करते ही है। बालगंधर्व के रूप में लगातार दुसरी बार मराठी फ़िल्म को सर्वोत्तम गायक का पुरस्कार मिल गया। पिछले साल सुरेश वाडकरजी को ’मी सिंधुताई सपकाळ’ फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया था। इस साल आनंद भाटेजी ने यह पुरस्कार प्राप्त किया। आजकल बॉलिवूड फ़िल्मों में कही बेसुरे गायक पैदा हो गये है और गीतों में बहुत ज़्यादा संगीत होने के कारण उन की आवाज़ कोई नहीं सुनता। लेकिन प्रादेशिक फ़िल्मों में आज भी कई बेहतरीन गायक अपनी अदाकारी दिखा रहे है। सही गायकी क्या होती है? इस का उत्तर ’बालगंधर्व’ के रूप मे हम को सुनने को मिलेगा। ’बालगंधर्व’ फ़िल्म के अल्बम में तकरीबन सोलाह गानें हैं। इन में से कई गीत आनंद भाटे जी ने गाए है। और इस संगीतबद्दध किया है, कौशल इनामदार ने। श्रवणीय संगीत की वजह से यह फ़िल्म देखने थना ’सुनने’ लायक बनाई गयी है। इस फ़िल्म को संगीत देना बहुत बड़ी चुनौती थी। कौशलजी तथा आनंद भाटेजी इस फ़िल्म के लिए श्रोताओं सौ प्रतिशत अंक पाने के हकदार है। इसी फ़िल्म ने सर्वोत्तम मेक-अप (रंगभुषा) का राष्ट्रीय ख़िताब भी हासिल किया है। १०० साल पहले का चित्रण फ़िल्म में दिखाना तथा किसी पुरूष को पूरी तह ’नौवारी’ साड़ी में परदे पर पेश करना बहुत ही कठीण था। लेकिन विक्रम गायकवाड ने यह चुनौती स्वीकार कर सही ढंग से ’बालगंधर्व’ परदे पर दिखाया है। सहयोगी स्टाफ सही तरिके से चुनना तथा उनसे काम करवाना भी आसान नहीं था। इस के लिए मैं निर्देशक रविंद्र जाधव को बधाई देना चाहता हूं।

सर्वोत्तम फ़िचर फ़िल्म का ख़िताब पानेवाली फ़िल्म ’देऊळ’ को मराठी दर्शको ने पहले ही दाद दी हैं। इस साल की वह सर्वोत्तम मराठी फ़िल्मों में से थी, इसमें कोई आशंका नहीं थी। उमेश कुलकर्णी व्दारा निर्देशित इस फ़िल्म में कई बार ऐसा लगता हैं, की कही ये सत्य कहानी पर आधारित तो नहीं? अपने देश में कई जगह श्रद्धा के आधार पर मंदिरों का निर्माण हुआ है और यह जगह आज सोने का अंडा देनेवाली मुर्गीयों जैसी बन गयी है। इसी थीम पर ’देऊळ’ ने प्रकाश डाला है। फ़िल्म के कथाकार तथा मुख्य अभिनेता गिरिश कुलकर्णी का इस फ़िल्म के यश में सबसे बड़ा हाथ है। गिरिश को इस फ़िल्म ने सर्वोत्तम कथाकार, सर्वोत्तम डायलॉग (संवाद) तथा सर्वोत्तम अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिलवाया। एक अलग कथा ही इस फ़िल्म की आत्मा थी। वो दमदार होने की वजह से फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर भी कमाकर गई। वैसे तो गिरिश मराठी के ग्लॅमरस अभिनेता नहीं है। लेकिन उनकी अभिनय अदाकारी इस फ़िल्म में लाजवाब रही। ग्रामीण भुमिका में आज गिरिश का हाथ शायद कोई नहीं पकड सकता! उन्होने फ़िल्म के डायलॉग भी जबरदस्त लिखे थे। इस फ़िल्म के बारे मे और एक बात बताना चाहुंगा। ’देऊळ’ ये मराठी की पहली फ़िल्म रही जिस के सेटेलाईट अधिकार एक करोड़ से भी ज़्यादा कीमत में बिके गए। पिछले ही हफ़्ते ’स्टार प्रवाह’ पर यह फ़िल्म अंग्रेजी सबटायटल्स के साथ दिखाई गयी थी। निर्देशक गिरिश कुलकर्णी की ’वळू’ तथा ’विहिर’ के बाद यह तीसरी फ़िल्म रही। उन के पहले शॉर्ट फ़िल्म ’गिरणी’ ने भी सर्वोत्तम ’शॉर्ट फ़िल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया था।

मराठी फ़िल्मों का दर्जा साल-ब-साल बढता ही जा रहा है। आजकल कई बॉलिवूड स्टार्स मराठी सीखकर मराठी फ़िल्में बनाना चाहते है तथा इन में काम करना चाहते है। मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए ये बड़ी गौरव की बात होगी।

 

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मस्ती की पाठ’शाळा’.

आजकल बॉलिवूड में केवल रीमेक और सिक्वेल के आधार पर फ़िल्में बनाकर जी रही है, ऐसा ही लग रहा है। अन्य भारतीय भाषाओं की फ़िल्मों की कथाऎं चुराकर आज बॉलिवूड में फ़िल्में बनती हैं। यही फ़िल्में आंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाई जाती है। लेकिन इस के अलावा भारतीय भाषाओं में भी फ़िल्में बनती है, यह शायद बहुत ही कम बॉलिवूड प्रेमी जानते होंगे। इन में से मराठी फ़िल्में पिछले कुछ सालों से नये नये रूप तथा कथाऎं लेकर दर्शकों के सामने आ रही है। इन्हें बहुत ही कम भारतीय दर्शक अंकित करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है, की मराठी मातृभाषावालें लोग ही यह नहीं जानते होंगे की मराठी में बॉलिवूड से बेहतर फ़िल्में बाई जा रही है। इन्हीं फ़िल्मों में अभी अभी रिलीज़ हुई ’शाळा’ इस फ़िल्म का नाम दर्ज़ किया जा सकता है।

मैं वैयक्तिक रूप से मराठी फ़िल्म-सृष्टी को भाग्यवान मानता हूं, के पिछले कई सालों से मराठी में अधिकाधिक युवा निर्देशक अपनी फ़िल्में बना रहे हैं, जिन में उमेश कुलकर्णी, विजु माने, रवी जाधव इन निर्देशकों का नाम शामिल है। इसी श्रुंखला में मैं ’शाळा’ के २५ वर्षीय युवा निर्देशक सुजय डहाके का नाम शामील करना चाहुंगा। इस फ़िल्म के बारे मे मैने कुछ छह-सात महिने पहले सुना था। युवा निर्देशक की वजह से शायद इस फ़िल्म को ’डिस्ट्रीब्युटर’ नहीं मिल रहे थे। लेकिन महेश मांजरेकर के ’ग्रेट मराठा इंटरटेनमेंट’ ने इस फ़िल्म को वितरित किया। बॉलिवूड की फालतू से फालतू फ़िल्में अच्छा-खासा कमा लेती है, लेकिन प्रभावशाली मराठी फ़िल्में दर्शकों के सामने आने की राह देखती रहती है। शायद यही भारतीय फ़िल्मजगत का एक दुख है। खैर.. इन बातों को छोडकर ’शाळा’ के बारें मे बात करते है।

अगर आपने ग्रामीण भारत के किसी पाठशाला से अपनी पढ़ाई पूरी की है तो यह फ़िल्म ही आपकी कहानी है, ऐसा समझो। ग्रामीण महाराष्ट्र के किसी पिछडे गांव का एक स्कूल और वहा के छात्र यही इस फ़िल्म के मुख्य पात्र हैं। युवा अवस्था में प्रवेश करने का काल तथा इसी बीच होनेवाला प्यार… यही इस फ़िल्म की मुख्य कथारेखा है। कथा तो सीधी साधी नज़र आयेगी, मगर निर्देशक ने जिस तरिके से इसे परदे पर पेश किया है, वो काबिलें तारीफ़ है। ग्रामीण पाठशालों के कई निराले अंगो का दर्शन इस फ़िल्म से होता है। विद्यार्थी अवस्था तथा युवावस्था का मिश्रण करने में और उसे पेश करने मे जो चालाखी दिखाई है, इसी वजह से फ़िल्म अपना मनोरंजन करती है। फ़िल्म के ’हिरो-हिरोईन’ तो वैसे है ही नहीं, लेकिन छात्रों को ही ’हिरो-हिरोईन’ मान लिया तो भी चलेगा। युवा कलाकारों का अभिनय ही फ़िल्म की मुख्य ताकत थी। और वह ताकत पूरी तरह से फ़िल्म में दिखाई देती है। वैसे तो ’शाळा’ में दिलिप प्रभावळकर, नंदू माधव, जितेंद्र जोशी, संतोष जुवेकर, अमृता खानविलकर, वैभव मांगले, आनंद इंगळे ऐसे मराठी के कई बडे कलाकार नज़र आते है। लेकिन मुख्य भूमिका तो अंशुमन जोशी, केतकी माटेगांवकर और केतन पवार यह तीन युवा कलाकारों मे खातें मे आयी है। और वही अपनी छांप छोड जाते है। और एक खास बात यह है के केतकी माटेगांवकर इस फ़िल्म मे मुख्य भूमिका में है, लेकिन पूरी फ़िल्म में उसे सिर्फ़ ’शिरोडकर’ नाम से ही जाना गया है।

मराठी फ़िल्मों में कई बार बहुत ही छोटी-छोटी बातों पर बारिकी से ध्यान दिया जाता है। ’देऊळ’ के बाद इसी फंडे को अंकित करने वाली फ़िल्म ’शाळा’ है, ऐसा मै मानता हूं। फ़िल्म की कहानी कैसी भी हो मगर निर्देशक का नज़रिया ही उस फ़िल्म दर्जा प्राप्त कर देता है। महाराष्ट्र के सभी मुख्य अंग्रेजी और मराठी समाचारपत्रों ने इस फ़िल्म को साढ़ेतीन और चार स्टार से गौरवित किया है। मैं भी उन से सहमत हूं। अगर आप बहुत दिनों से फ़िल्मों का नयापन ढूंढने की कोशिश कर रहे हो तो एक बार ’शाळा’ ज़रूर देखियेगा!

 

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