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मस्ती की पाठ’शाळा’.

11 फरवरी

आजकल बॉलिवूड में केवल रीमेक और सिक्वेल के आधार पर फ़िल्में बनाकर जी रही है, ऐसा ही लग रहा है। अन्य भारतीय भाषाओं की फ़िल्मों की कथाऎं चुराकर आज बॉलिवूड में फ़िल्में बनती हैं। यही फ़िल्में आंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाई जाती है। लेकिन इस के अलावा भारतीय भाषाओं में भी फ़िल्में बनती है, यह शायद बहुत ही कम बॉलिवूड प्रेमी जानते होंगे। इन में से मराठी फ़िल्में पिछले कुछ सालों से नये नये रूप तथा कथाऎं लेकर दर्शकों के सामने आ रही है। इन्हें बहुत ही कम भारतीय दर्शक अंकित करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है, की मराठी मातृभाषावालें लोग ही यह नहीं जानते होंगे की मराठी में बॉलिवूड से बेहतर फ़िल्में बाई जा रही है। इन्हीं फ़िल्मों में अभी अभी रिलीज़ हुई ’शाळा’ इस फ़िल्म का नाम दर्ज़ किया जा सकता है।

मैं वैयक्तिक रूप से मराठी फ़िल्म-सृष्टी को भाग्यवान मानता हूं, के पिछले कई सालों से मराठी में अधिकाधिक युवा निर्देशक अपनी फ़िल्में बना रहे हैं, जिन में उमेश कुलकर्णी, विजु माने, रवी जाधव इन निर्देशकों का नाम शामिल है। इसी श्रुंखला में मैं ’शाळा’ के २५ वर्षीय युवा निर्देशक सुजय डहाके का नाम शामील करना चाहुंगा। इस फ़िल्म के बारे मे मैने कुछ छह-सात महिने पहले सुना था। युवा निर्देशक की वजह से शायद इस फ़िल्म को ’डिस्ट्रीब्युटर’ नहीं मिल रहे थे। लेकिन महेश मांजरेकर के ’ग्रेट मराठा इंटरटेनमेंट’ ने इस फ़िल्म को वितरित किया। बॉलिवूड की फालतू से फालतू फ़िल्में अच्छा-खासा कमा लेती है, लेकिन प्रभावशाली मराठी फ़िल्में दर्शकों के सामने आने की राह देखती रहती है। शायद यही भारतीय फ़िल्मजगत का एक दुख है। खैर.. इन बातों को छोडकर ’शाळा’ के बारें मे बात करते है।

अगर आपने ग्रामीण भारत के किसी पाठशाला से अपनी पढ़ाई पूरी की है तो यह फ़िल्म ही आपकी कहानी है, ऐसा समझो। ग्रामीण महाराष्ट्र के किसी पिछडे गांव का एक स्कूल और वहा के छात्र यही इस फ़िल्म के मुख्य पात्र हैं। युवा अवस्था में प्रवेश करने का काल तथा इसी बीच होनेवाला प्यार… यही इस फ़िल्म की मुख्य कथारेखा है। कथा तो सीधी साधी नज़र आयेगी, मगर निर्देशक ने जिस तरिके से इसे परदे पर पेश किया है, वो काबिलें तारीफ़ है। ग्रामीण पाठशालों के कई निराले अंगो का दर्शन इस फ़िल्म से होता है। विद्यार्थी अवस्था तथा युवावस्था का मिश्रण करने में और उसे पेश करने मे जो चालाखी दिखाई है, इसी वजह से फ़िल्म अपना मनोरंजन करती है। फ़िल्म के ’हिरो-हिरोईन’ तो वैसे है ही नहीं, लेकिन छात्रों को ही ’हिरो-हिरोईन’ मान लिया तो भी चलेगा। युवा कलाकारों का अभिनय ही फ़िल्म की मुख्य ताकत थी। और वह ताकत पूरी तरह से फ़िल्म में दिखाई देती है। वैसे तो ’शाळा’ में दिलिप प्रभावळकर, नंदू माधव, जितेंद्र जोशी, संतोष जुवेकर, अमृता खानविलकर, वैभव मांगले, आनंद इंगळे ऐसे मराठी के कई बडे कलाकार नज़र आते है। लेकिन मुख्य भूमिका तो अंशुमन जोशी, केतकी माटेगांवकर और केतन पवार यह तीन युवा कलाकारों मे खातें मे आयी है। और वही अपनी छांप छोड जाते है। और एक खास बात यह है के केतकी माटेगांवकर इस फ़िल्म मे मुख्य भूमिका में है, लेकिन पूरी फ़िल्म में उसे सिर्फ़ ’शिरोडकर’ नाम से ही जाना गया है।

मराठी फ़िल्मों में कई बार बहुत ही छोटी-छोटी बातों पर बारिकी से ध्यान दिया जाता है। ’देऊळ’ के बाद इसी फंडे को अंकित करने वाली फ़िल्म ’शाळा’ है, ऐसा मै मानता हूं। फ़िल्म की कहानी कैसी भी हो मगर निर्देशक का नज़रिया ही उस फ़िल्म दर्जा प्राप्त कर देता है। महाराष्ट्र के सभी मुख्य अंग्रेजी और मराठी समाचारपत्रों ने इस फ़िल्म को साढ़ेतीन और चार स्टार से गौरवित किया है। मैं भी उन से सहमत हूं। अगर आप बहुत दिनों से फ़िल्मों का नयापन ढूंढने की कोशिश कर रहे हो तो एक बार ’शाळा’ ज़रूर देखियेगा!

 

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