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Category Archives: सिनेमा

तुकाराम (फिल्म): जगद्गुरूका सफ़र

महाराष्ट्र को संतों की भूमी कहा जाता है। संत तत्वज्ञान तथा मराठी साहित्य ने मराठी मनुष्य को सभ्यता की सीख दी है। मराठी संतपरंपरा के प्रथम कवी संत ज्ञानेश्वर को तथा आखरी कवी संत तुकाराम को माना जाता है। प्रसिद्ध मराठी काव्यपंक्ति ’ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस…’ में यही बात दर्शायी है। संत तुकाराम का जन्म पुणे के नज़दीक देहू गांव में हुआ था। महाराष्ट्र वारकरी संप्रदाय उन्हें जगद्गुरू कहता है। सभी मराठी जन उन्हें जगद्गुरू संत तुकाराम के नाम से ही पहचानती हैं।
महाराष्ट्र के वारकरी जब पंढरपूर की यात्रा पर चलते है, तो ’ज्ञानोबा माऊली तुकाराम’ का ही जयघोष करते है। यह स्थान संत तुकाराम का मराठी दिलों में है। उन के संतजीवन पर आधारीत पहली फिल्म विष्णुपंत पागनीस ने १९४० के दशक में बनायी थी। उसका नाम था- ’संत तुकाराम’। एक फिल्म मराठी ही नहीं बल्कि भारतीय फिल्मजगत एक माईलस्टोन बन के रह गयी है। क्योंकि प्रतिष्ठापूर्ण कान्स फिल्म्स फेस्टीव्हल में इसे सन्माननीय सुवर्ण कमल पदक से सन्मानित किया गया था। यह पुरस्कार पानेवाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। महाराष्ट्र में इस फ़िल्म ने सुवर्णमहोत्सव पूरा किया था। फ़िल्म का प्रभाव इतना था की, लोग फ़िल्म देखने थियेटर में अपने जूतें उतारकर जाते थें। विष्णुपंत को ही संत तुकाराम मानकर उनकी पूजा करते थे।
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आज इस के सत्तर साल बाद फिरसे संत तुकाराम के जीवन चरित्र पर आधारित फ़िल्म मराठी में बनाई गयी। इस बीच सिर्फ़ एक बार ऐसा प्रयास कन्नड में हुआ था। इस फ़िल्म का नाम था- ’भक्त तुकाराम’। सन २०१२ में चंद्रकांत कुलकर्णी निर्देशित ’तुकाराम’ फ़िल्म प्रदर्शित हुई। १९४० की फ़िल्म संत तुकाराम के संतचरित्र पर आधारित थी तथा नयी फ़िल्म उनके सामान्य मनुष्य से संत के सफ़र पर आधारित है। इसिलिये किसी भी फ़िल्म समीक्षक ने दोनों फ़िल्मों की तुलना करना उचित नहीं समझा। लोगों के मन में यही शंका थी की, परदें पर इससे पहले भी ’संत तुकाराम’ आ चुकी है, अब कुलकर्णीजी क्या नया दिखाने वाले है? फ़िल्म को देखकर ऐसा महसूस होता है की, निर्देशक जिस उद्देश्य को लेकर यह फ़िल्म बना रहे थे वह उन्होनें हासिल किया है। संत तुकाराम के जन्म से लेकर संतजीवन का सफ़र इस फ़िल्म में प्रभावशाली रूप से सादर किया है।
फ़िल्म की शुरूआत ही तुकाराम के बालजीवन से होती है। उनके माता-पिता तथा भाई सावजी, कान्हा और दोनों पत्नियों का चरित्र भी इस फ़िल्म में सारांश रूप में नज़र आता है। उन के जीवन पर किन घटनाओं का असर हुआ तथा किन व्यक्तियों का प्रभाव था, यह बातें निर्देशक ने बहुत ही अच्छी तरह से परदे पर दिखाई है। फ़िल्म पूरी तीन घंटे की होने के बावजूद कही पर भी, थम नहीं जाती। इंटरर्व्हल तक की फ़िल्म तुकाराम के व्यवहारिक जीवन पर आधारित है। इस में उन के जीवन की सभी घटनायें फ़िल्माई गयी है।
यह केवल एक मनोरंजन करनेवाली फ़िल्म नहीं बल्कि जीवन की कहानी बयां करनेवाली फ़िल्म है। तुकाराम की मुख्य भुमिका निभानेवाले जितेंद्र ज़ोशी को इससे पहले मैंने कई फ़िल्मों में देखा है। वे मराठी के जानेमाने विनोदी अभिनेता तथा एक कवी भी है। लेकिन इस फ़िल्म में संत तुकाराम के रूप में वे खूब सजे है। अन्य लोगों की तरह मुझे भी यह आशंका थी की, एक विनोदी अभिनेता तुकाराम की भुमिका क्या कर पायेंगे? लेकिन, जितेंद्र ने इस भुमिका में जान लाई है, ऐसा कहा तो ग़लत नहीं होगा। संत तुकाराम पर आधारित इस दूसरी फ़िल्म को भी ’माईलस्टोन बनाने में उन का योगदान सबसे अधिक होगा।
मराठी फ़िल्मों की गुणवत्ता दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है। ’तुकाराम’ के गीत भी फ़िल्म मे बाद याद में रहते हैं। इन में से कई तो ’संत तुकाराम’ मे भजन ही हैं। उन्हें अवधूत गुप्ते तथा अशोक पत्की ने संगीतबद्ध किया हैं। संत तुकाराम ने लिखा ’वृक्षवल्ली आम्हा सोयरी, वनचरे’ बहुत की खुबी से अनिरूद्ध जोशी ने गाया है। अन्य गीतों में ज्ञानेश्वर मेश्राम, अवधूत गुप्ते तथा हरिहरन अपना कमाल दिखाते है। फ़िल्म का अल्बम एक बार ज़रूर सुनिये। ऐसे श्रवणीय गीत आजकल मराठी फ़िल्मों की खासियत बन गयी है।
आजकल की ’ए’ ग्रेड फ़िल्मों में ’तुकाराम’ फ़िल्म को देखना अपने युवा पिढी के उसूलों के ख़िलाफ़ होगा। फिर भी अगर कोई अच्छी फ़िल्म देखना चाहते हो, तो ये फ़िल्म ज़रूर देखिये।
मेरा रेटिंग: ४.५ स्टार.

 

फिर से मराठी झंडा

इससे पहले वाले ब्लॉग में मैने ’शाळा’ फिल्म के बारे में लिखा था। उसी फिल्म को आज सर्वोत्कृष्ट मराठी फिल्म के राष्ट्रीय खिताब से नवाज़ा गया है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में इस बार मराठी फिल्मों ने फिर अपना झंडा फिरसे लहरा दिया। बॉलिवूड की फिल्में कितनी भी रंगरंगीन हो, वे दर्ज़ेदार फिल्मों की पंक्ति में नहीं बैठ सकती, यही इन फिल्म पुरस्कारों ने साबित किया है। बॉलिवूड को सिर्फ़ विद्या बालन के रूप में सर्वोत्तम अभिनेत्री का पुरस्कार मिल गया। यही उन के लिए खुशी की बात होगी…!!!

बालगंधर्व, देऊळ तथा शाळा ये पिछले साल की बेहतरीन मराठी फिल्में रही हैं। मराठी भाषिक इन फिल्मों को नहीं देखते, इन्ही कारणवश मराठी फ़िल्मे महाराष्ट्र में ही बहुत कम चल पाती हैं। लेकिन मराठी दर्शक देखे या ना देखे, फिल्म पुरस्कार इन फ़िल्मों को अपना दर्जा प्रदान करते ही है। बालगंधर्व के रूप में लगातार दुसरी बार मराठी फ़िल्म को सर्वोत्तम गायक का पुरस्कार मिल गया। पिछले साल सुरेश वाडकरजी को ’मी सिंधुताई सपकाळ’ फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया था। इस साल आनंद भाटेजी ने यह पुरस्कार प्राप्त किया। आजकल बॉलिवूड फ़िल्मों में कही बेसुरे गायक पैदा हो गये है और गीतों में बहुत ज़्यादा संगीत होने के कारण उन की आवाज़ कोई नहीं सुनता। लेकिन प्रादेशिक फ़िल्मों में आज भी कई बेहतरीन गायक अपनी अदाकारी दिखा रहे है। सही गायकी क्या होती है? इस का उत्तर ’बालगंधर्व’ के रूप मे हम को सुनने को मिलेगा। ’बालगंधर्व’ फ़िल्म के अल्बम में तकरीबन सोलाह गानें हैं। इन में से कई गीत आनंद भाटे जी ने गाए है। और इस संगीतबद्दध किया है, कौशल इनामदार ने। श्रवणीय संगीत की वजह से यह फ़िल्म देखने थना ’सुनने’ लायक बनाई गयी है। इस फ़िल्म को संगीत देना बहुत बड़ी चुनौती थी। कौशलजी तथा आनंद भाटेजी इस फ़िल्म के लिए श्रोताओं सौ प्रतिशत अंक पाने के हकदार है। इसी फ़िल्म ने सर्वोत्तम मेक-अप (रंगभुषा) का राष्ट्रीय ख़िताब भी हासिल किया है। १०० साल पहले का चित्रण फ़िल्म में दिखाना तथा किसी पुरूष को पूरी तह ’नौवारी’ साड़ी में परदे पर पेश करना बहुत ही कठीण था। लेकिन विक्रम गायकवाड ने यह चुनौती स्वीकार कर सही ढंग से ’बालगंधर्व’ परदे पर दिखाया है। सहयोगी स्टाफ सही तरिके से चुनना तथा उनसे काम करवाना भी आसान नहीं था। इस के लिए मैं निर्देशक रविंद्र जाधव को बधाई देना चाहता हूं।

सर्वोत्तम फ़िचर फ़िल्म का ख़िताब पानेवाली फ़िल्म ’देऊळ’ को मराठी दर्शको ने पहले ही दाद दी हैं। इस साल की वह सर्वोत्तम मराठी फ़िल्मों में से थी, इसमें कोई आशंका नहीं थी। उमेश कुलकर्णी व्दारा निर्देशित इस फ़िल्म में कई बार ऐसा लगता हैं, की कही ये सत्य कहानी पर आधारित तो नहीं? अपने देश में कई जगह श्रद्धा के आधार पर मंदिरों का निर्माण हुआ है और यह जगह आज सोने का अंडा देनेवाली मुर्गीयों जैसी बन गयी है। इसी थीम पर ’देऊळ’ ने प्रकाश डाला है। फ़िल्म के कथाकार तथा मुख्य अभिनेता गिरिश कुलकर्णी का इस फ़िल्म के यश में सबसे बड़ा हाथ है। गिरिश को इस फ़िल्म ने सर्वोत्तम कथाकार, सर्वोत्तम डायलॉग (संवाद) तथा सर्वोत्तम अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिलवाया। एक अलग कथा ही इस फ़िल्म की आत्मा थी। वो दमदार होने की वजह से फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर भी कमाकर गई। वैसे तो गिरिश मराठी के ग्लॅमरस अभिनेता नहीं है। लेकिन उनकी अभिनय अदाकारी इस फ़िल्म में लाजवाब रही। ग्रामीण भुमिका में आज गिरिश का हाथ शायद कोई नहीं पकड सकता! उन्होने फ़िल्म के डायलॉग भी जबरदस्त लिखे थे। इस फ़िल्म के बारे मे और एक बात बताना चाहुंगा। ’देऊळ’ ये मराठी की पहली फ़िल्म रही जिस के सेटेलाईट अधिकार एक करोड़ से भी ज़्यादा कीमत में बिके गए। पिछले ही हफ़्ते ’स्टार प्रवाह’ पर यह फ़िल्म अंग्रेजी सबटायटल्स के साथ दिखाई गयी थी। निर्देशक गिरिश कुलकर्णी की ’वळू’ तथा ’विहिर’ के बाद यह तीसरी फ़िल्म रही। उन के पहले शॉर्ट फ़िल्म ’गिरणी’ ने भी सर्वोत्तम ’शॉर्ट फ़िल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किया था।

मराठी फ़िल्मों का दर्जा साल-ब-साल बढता ही जा रहा है। आजकल कई बॉलिवूड स्टार्स मराठी सीखकर मराठी फ़िल्में बनाना चाहते है तथा इन में काम करना चाहते है। मराठी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए ये बड़ी गौरव की बात होगी।

 

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मस्ती की पाठ’शाळा’.

आजकल बॉलिवूड में केवल रीमेक और सिक्वेल के आधार पर फ़िल्में बनाकर जी रही है, ऐसा ही लग रहा है। अन्य भारतीय भाषाओं की फ़िल्मों की कथाऎं चुराकर आज बॉलिवूड में फ़िल्में बनती हैं। यही फ़िल्में आंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बनाई जाती है। लेकिन इस के अलावा भारतीय भाषाओं में भी फ़िल्में बनती है, यह शायद बहुत ही कम बॉलिवूड प्रेमी जानते होंगे। इन में से मराठी फ़िल्में पिछले कुछ सालों से नये नये रूप तथा कथाऎं लेकर दर्शकों के सामने आ रही है। इन्हें बहुत ही कम भारतीय दर्शक अंकित करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है, की मराठी मातृभाषावालें लोग ही यह नहीं जानते होंगे की मराठी में बॉलिवूड से बेहतर फ़िल्में बाई जा रही है। इन्हीं फ़िल्मों में अभी अभी रिलीज़ हुई ’शाळा’ इस फ़िल्म का नाम दर्ज़ किया जा सकता है।

मैं वैयक्तिक रूप से मराठी फ़िल्म-सृष्टी को भाग्यवान मानता हूं, के पिछले कई सालों से मराठी में अधिकाधिक युवा निर्देशक अपनी फ़िल्में बना रहे हैं, जिन में उमेश कुलकर्णी, विजु माने, रवी जाधव इन निर्देशकों का नाम शामिल है। इसी श्रुंखला में मैं ’शाळा’ के २५ वर्षीय युवा निर्देशक सुजय डहाके का नाम शामील करना चाहुंगा। इस फ़िल्म के बारे मे मैने कुछ छह-सात महिने पहले सुना था। युवा निर्देशक की वजह से शायद इस फ़िल्म को ’डिस्ट्रीब्युटर’ नहीं मिल रहे थे। लेकिन महेश मांजरेकर के ’ग्रेट मराठा इंटरटेनमेंट’ ने इस फ़िल्म को वितरित किया। बॉलिवूड की फालतू से फालतू फ़िल्में अच्छा-खासा कमा लेती है, लेकिन प्रभावशाली मराठी फ़िल्में दर्शकों के सामने आने की राह देखती रहती है। शायद यही भारतीय फ़िल्मजगत का एक दुख है। खैर.. इन बातों को छोडकर ’शाळा’ के बारें मे बात करते है।

अगर आपने ग्रामीण भारत के किसी पाठशाला से अपनी पढ़ाई पूरी की है तो यह फ़िल्म ही आपकी कहानी है, ऐसा समझो। ग्रामीण महाराष्ट्र के किसी पिछडे गांव का एक स्कूल और वहा के छात्र यही इस फ़िल्म के मुख्य पात्र हैं। युवा अवस्था में प्रवेश करने का काल तथा इसी बीच होनेवाला प्यार… यही इस फ़िल्म की मुख्य कथारेखा है। कथा तो सीधी साधी नज़र आयेगी, मगर निर्देशक ने जिस तरिके से इसे परदे पर पेश किया है, वो काबिलें तारीफ़ है। ग्रामीण पाठशालों के कई निराले अंगो का दर्शन इस फ़िल्म से होता है। विद्यार्थी अवस्था तथा युवावस्था का मिश्रण करने में और उसे पेश करने मे जो चालाखी दिखाई है, इसी वजह से फ़िल्म अपना मनोरंजन करती है। फ़िल्म के ’हिरो-हिरोईन’ तो वैसे है ही नहीं, लेकिन छात्रों को ही ’हिरो-हिरोईन’ मान लिया तो भी चलेगा। युवा कलाकारों का अभिनय ही फ़िल्म की मुख्य ताकत थी। और वह ताकत पूरी तरह से फ़िल्म में दिखाई देती है। वैसे तो ’शाळा’ में दिलिप प्रभावळकर, नंदू माधव, जितेंद्र जोशी, संतोष जुवेकर, अमृता खानविलकर, वैभव मांगले, आनंद इंगळे ऐसे मराठी के कई बडे कलाकार नज़र आते है। लेकिन मुख्य भूमिका तो अंशुमन जोशी, केतकी माटेगांवकर और केतन पवार यह तीन युवा कलाकारों मे खातें मे आयी है। और वही अपनी छांप छोड जाते है। और एक खास बात यह है के केतकी माटेगांवकर इस फ़िल्म मे मुख्य भूमिका में है, लेकिन पूरी फ़िल्म में उसे सिर्फ़ ’शिरोडकर’ नाम से ही जाना गया है।

मराठी फ़िल्मों में कई बार बहुत ही छोटी-छोटी बातों पर बारिकी से ध्यान दिया जाता है। ’देऊळ’ के बाद इसी फंडे को अंकित करने वाली फ़िल्म ’शाळा’ है, ऐसा मै मानता हूं। फ़िल्म की कहानी कैसी भी हो मगर निर्देशक का नज़रिया ही उस फ़िल्म दर्जा प्राप्त कर देता है। महाराष्ट्र के सभी मुख्य अंग्रेजी और मराठी समाचारपत्रों ने इस फ़िल्म को साढ़ेतीन और चार स्टार से गौरवित किया है। मैं भी उन से सहमत हूं। अगर आप बहुत दिनों से फ़िल्मों का नयापन ढूंढने की कोशिश कर रहे हो तो एक बार ’शाळा’ ज़रूर देखियेगा!

 

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सिल्क की अधुरी कहानी

हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों में अक्सर यही देखा गया है की, हिरो की अदाकारी पर ही फ़िल्म चलती हैं। बहुत ही कम मौकात ऐसे आये है, जब फ़िल्म क हिरोईन फ़िल्म चलाती है। इन्ही कुछ फ़िल्मों में ’द डर्टी पिक्चर’ का आज ज़रूर शामिल होगा। जिसे सही तरिके से actress कहा जाए ऐसी बहुत ही कम actress हिंदी फ़िल्मों में आज मौजुद है। शबाना आज़मी, माधुरी दिक्षित, नर्गीस तथा स्मिता पाटिल का जमाना चला ही गया ऐसा लग रहा था। लेकिन आज भी प्रियंका चोप्रा तथा विद्या बालन सही रूप से actress का ख़िताब पहन चल रही है।

’द डर्टी पिक्चर’ जब रिलीज़ हुई तब देखने का मौका नहीं मिला था। लेकिन उसकी डिवीडी रिलीज होने के बाद यह फ़िल्म देखी। विद्या बालन ने सही रूप से सिल्क स्मिता को परदे पर पेश किया है। ’द डर्टी पिक्चर’ जुनुबी भारत की कलाकार सिल्क स्मिता पर आधारित है ऐसा सुना था मगर ये सिल्क कौन है? इसकी जानकारी फ़िल्म देखने के बाद मिली। विद्या ने यह किरदार निभाने के लिए जो मेहनत की है, वो तारीफ़ के काबिल ही है। इससे पहले प्रियदर्शन की फ़िल्म ’भूलभुलैय्या’ में विद्या को actress के रूप में मैने देखा था। विद्या ने किसी चैनेल पर एक इंटरव्ह्यु में कहा था के, सिल्क का रोल मुझे समझ में आया लेकिन सिल्क नही!… सच ही कहा था उसने। फ़िल्म देखकर यह सवाल हर एक के मन में तो ज़रूर आयेगा। फ़िल्म के कई डायलॉग से सिल्क के विचार पहचान आ सकते है। उन्हीं विचारों की वजह से उसकी ज़िंदगी की कहानी शायद अधुरी रह गयी।

शायद इस किरदार की वजह से सिल्क स्मिता का नाम आये तो विद्या बालन का ही चेहरा सामने आता है।

 

मेरी तीन कॉमेडी फ़िल्में

विनोद ही मनोरंजन का सब से बड़ा साधन माना जाता है। मैं भी यही मानता हूं। अधिकतर लोग कॉमेडी फ़िल्में ही देखना पसंद करते हैं। हिंदी फ़िल्मजगत में कही बहारदार कॉमेडी फ़िल्में पिछले कई सालों में आ गई हैं। परेश रावल तथा राजपाल यादव जैसे कलाकारों ने कॉमेडी फ़िल्मों को नया आयाम प्राप्त करके दिया हैं। अगर कोई मुझसे कहे की तुम्हारी पसंद की तीन कॉमेडी फ़िल्में बताओ तो मैं इन तीनों को चुनुंगा-

१.      हंगामा

२.      अंदाज़ अपना अपना

३.      हेराफेरी

सन २००४ मे आयी ’हंगामा’ फ़िल्म मैने देखी हुई सब से कॉमेडी फ़िल्म है। जब यह फ़िल्म रीलीज हुई तब मैं पुणे में इंजिनियरिंग कॉलेज मे पढ़ता था। मुझे इसे थिएटर में देखने का नसीब हासील नहीं हुआ परंतु, होस्टेल पर दोस्तों के साथ मैने इस फ़िल्म का लुत्फ़ उठाया था। ज़्यादा हंसने से पेट दुखता है, ऐसा मैने सिर्फ़ सुना और देखा था। मगर महसूस पहली बार इस फ़िल्म ने कराया। प्रियदर्शन निर्देशित ’हंगामा’ इस साल बाक्स आफिस पर क़ाफ़ी चली थी। फिल्म में दिखाये घटनाक्रम इतनी अच्छी तरह से परदे पर पेश किये गये है, जिस से यह पता चलता है की यह फिल्म किसी कसे हुए निर्देशक ने निर्देशित की है। कॉमेडी फिल्मों मे माहिर प्रियदर्शन ने इसे क़ाफ़ी बारकाई से बनाया है। फिल्म के कलाकार परेश रावल, अक्षय खन्ना, रीमी सेन, आफ़ताब शिवदासानी, मनोज जोशी, शोमा आनंद, संजय नार्वेकर ने अपने कॉमेडी की बहार लाजवाब टाइमिंग से दिखाई है। ’पोच्चकोरू मोकुथी’ नामक मल्यालम फ़िल्म से यह फिल्म बनाई गयी थी। तथा इसी फ़िल्म का रीमेक तमिल में ’कोटीस्वरन मगल’ नाम से और तेलुगू में ’गोपाल राव गरी अम्मई’ नाम से भी हुआ था।

आमीर ख़ान ने बहुत ही कम कॉमेडी फ़िल्में की है। उन मे से ही एक है- ’अंदाज़ अपना अपना’। आमीर तथा सलमान ख़ान के फ़िल्मी करियर की बहुत ही पहले की फ़िल्म ’अंदाज़ अपना अपना’ थी। राजकुमार संतोषी की यह फ़िल्म मैं आज भी देखता हूं तो कभी भी बोर नहीं होता। हंस हंस के लोटपोट करने वाली फ़िल्मों में से ही यह एक फ़िल्म है। करिश्मा कपूर और रविना टंडन के करियर की भी यह बहुत शुरुआती फ़िल्म थी। चारों कलाकार कॉमेडी रूप में इसी फ़िल्म में दिखाई दिये। जब परेश रावल हिंदी फ़िल्मों में खलनायक के रूप में आते थे, उसी दौर की यह फ़िल्म थी। परेश रावल एक कॉमेडी खलनायक के रूप में और डबल रोल में इस फ़िल्म में दिखाई दिये। इन के अलावा शक्ती कपूर, विजू खोटे और ज्युनियर अजित इस फ़िल्म में अच्छे कॉमेडियन के रूप में नज़र आये। आमीर ख़ान तो मेरा सब से फेवरिट कलाकार है, इसलिए यह फ़िल्म भी मुझे सब से पसंद फ़िल्मों में शामिल होती है। इस फ़िल्म मे गीत आज भी मेरी ज़हन में बसे हुए है। राजकुमार संतोषी की सब से बेहतरीन फ़िल्मों में मैं इसे शामिल करना चाहूंगा।

तीसरी फ़िल्म है- हेरा फेरी। आज भी यह फ़िल्म ऑल टाईम फेरविट कॉमेडी फ़िल्मों में शामिल की जाती हैं। नैचुरल कॉमेडी फ़िल्में हिंदी फ़िल्मजगत में बहुत ही कम दिखाई देती है। इसी शृंखला में शामिल हुई यह एक फ़िल्म है। परेश रावल का बाबुराव गणपतराव आपटे का किरदार दर्शक कभी नहीं भुला सकते। परेश रावल के करियर में सब से बेहतरीन रोल मैं इसी रोल को कहुंगा। इसी कारणवश इस फ़िल्म की सिक्वेल ’फिर हेराफेरी’ भी सुपरहिट रही थी। अक्षय कुमार तथा सुनिल शेट्टी की इस मे पहले कई फ़िल्में आयी, मगर सभी ऍक्शन फ़िल्में थी। दोनो ऍक्शन कलाकार पहली बार एक कॉमेडी फ़िल्म में नज़र आये। इस फ़िल्म की सफलता की वजह से दोनों पर लगा ऍक्शन हिरो का सिक्का निकलने में काफ़ी मदद हुई। बाद में दोनों कई बार कॉमेडी फ़िल्मों में दिखाई दिए, तथा दोनों की कॉमेडी फ़िल्मे बाक्स आफिस पर अच्छा काम कर के गई। हर कलाकार के जीवन में कई फ़िल्में ’माईलस्टोन’ बन के रह जाती है। अक्षय, सुनिल तथा परेश के लिए ’हेराफेरी’ एक माईलस्टोन ही थी। प्रियदर्शन निर्देशित यह फ़िल्म मल्यालम सिनेमा ’रामोजी राव स्पीकिंग’ का रीमेक थी। इसी फ़िल्म को तमिल में ’अरंगेत्रा वेलाई’ नाम से बनाया जा चुका है।

 

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अजब प्रेम की गज़ब कहानी… अंतहीन (ओंतोहीन, অন্তহীন)

नये ज़माने की प्रेम कहानी कैसी हो सकती है? इस सवाल का जवाब ढूंढना है, तो एक बार अंतहीन ज़रूर देखनी चाहिये. सन २००९ में बनी इस बंगाली फ़िल्म को इस साल का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है. इससे ही इस फ़िल्म की काबिलियत समझ में आती है. जब राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा हुई तब श्रेया घोषाल को सब दो गीतों के लिए राष्ट्रीय सन्मान प्राप्त हुआ था. उन मे से एक मराठी फ़िल्म ’जोगवा’ के गाने ’जीव रंगला’ गाना था, तथा दूसरा गाना बंगाली फ़िल्म ’अंतहीन’ से ’फेरारी मोन’ के लिए था. मैं ने यह गाना इटरनेट पर ढूंढ कर सुना तो काफ़ी अच्छा लगा. तभी मैने फ़िल्म देखने का फ़ैसला किया था. जिस फ़िल्म को राष्ट्रीय सन्मान मिला है, उस मे कुछ तो बात होनी चाहिए. फ़िल्म की कथा एक ’रोमॅंटिक स्टोरी’ है और थोडी अजीब भी. जिस में नायक तथा नायिका एक दूसरे को जानते भी है और नहीं जानते भी! जिस में दोनों एक दूसरे से मोहब्बत करते है और नही करते भी! ऐसी अजीब कहानी लेकर अनिरूद्ध रॉय चौधरी ने इस फ़िल्म का निर्देशन किया है. यह एक प्रकार का इंटरनेट प्यार है. फ़िल्म के हिरो-हिरोईन यानी राहुल बोस और राधिका आपटे ने अपना किरदार बहुत अच्छी तरह से निभाया है. एक पुलिस अफ़सर तथा पत्रकार के बीच होनेवाला प्यार इस फ़िल्म मे दिखाया है. सहाय्यक अभिनेत्री के रोल में अपर्णा सेन और शर्मिला टागौर भी है. लेकिन ’प्राईम फ़ोकस’ तो अभिक (राहुल बोस) और ब्रिंदा (राधिका आपटे) पर ही रहता है. इस प्रेम कहानी का अंत थोडा सा ग़लत ही लगा. और यह लगना स्वाभाविक भी है, क्युंकी हम पारंपारिक प्रेम कहानी की चौकट में जो दबे हुए है. फ़िल्म के गीत बहुत ही अच्छे है. मैंने देखी हुई यह पहली ही बंगाली मूवी थी. वैसे सबटाईटल्स होने की वजह से समझने मे कोई दिक्कत नहीं हुई. बंगाली भाषा अन्य आर्य भाषियों को जल्दी समझ आ सकती है. शायद इस वजह से मैं आगे भी और बंगाली फ़िल्म देख सकू. एक बात तो मैं बताना चाहूंगा के, राधिका आपटे मूलत: पुणे की मराठी लड़की है, लेकिन उसने इस फ़िल्म में बंगाली संवाद अच्छी तरह से बोले है. इसी वजह से मराठियों को बंगाली समझ आने को अधिक दिक्कत नहीं होगी, यह मात्र समझ आया. ’अंतहीन’ को चार राष्ट्रीय सन्मान मिले है. अगर आप एक अच्छी रोमॅंटिक स्टोरी देखना चाहते है तो इस फ़िल्म को ज़रूर देखिये…

 

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